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    संगीतायन : सावन की फुहार लाई कजरी की बहारें, वर्षा ऋतु में लोकगीत गायन की अनोखी परंपरा

    By Abhishek SharmaEdited By:
    Updated: Sun, 10 Jul 2022 11:06 AM (IST)

    सावन की फुहार लाई कजरी की बहार वर्षा ऋतु में लोकगीत गायन की अनोखी परंपरा। सावन के स्वागत और बारिश की बूंदों के शीतल स्पर्श से जुड़ी हिंदुस्तानी लोकगीत ...और पढ़ें

    उत्‍तर भारत में वर्षा ऋतु में लोकगीत गायन की अनोखी परंपरा।

    यतीन्द्र मिश्र, अयोध्या, उ.प्र.।  वर्षा ऋतु में लोकगीत गायन का एक प्रकार कजरी, जिसे उपशास्त्रीय ढंग से मिश्र रागों में गाने की बड़ी परंपरा है। मुख्यत: उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित कजरी, मीरजापुर में स्थित विन्ध्यवासिनी देवी से भी संबद्ध है, जिन्हें 'कजरी' या 'हरिकाली' भी कहा जाता है। पंडित बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' ने विन्ध्यवासिनी भगवती के जन्मोत्सव में गाये जाने वाले समस्त वर्षा गीतों को कजरी माना है।

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    कजरी के विभिन्न प्रकार बनारस, मीरजापुर, बुंदेलखंड से लेकर आरा, गया, छपरा तक फैले हुए हैं। जहां कहीं भी सावन की फुहार, बूंदाबांदी और धारसार बरसात होगी, कजरी गायन अपने शिखर पर गुंजायमान रहती है। कजरी के साथ झूला गायन की भी परंपरा है, क्योंकि दोनों का संबंध सावन-भादों से है। इस गायन में 'रे हरी' की टेक वैसे ही उभरती है, जैसी चैती गायन में 'हो रामा' की पुकार तान लगती है।

    भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और प्रेमघन ने प्रचुर मात्रा में कजरियां लिखीं हैं, जिनमें भारतेन्दु बाबू की यह कजरी बेहद प्रसिद्ध है- 'प्यारी झूलन पधारो/झुकि आए बदरा...' विद्याधरी, बड़ी मोतीबाई, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी ने पूरब-अंग गायिकी में निबद्ध कई सारी अमर कजरियां गायी हैं, जिनमें कुछ अप्रतिम हैं- 'घेरि-घेरि आई सावन की बदरिया ना', 'भीजी जाऊं मैं पिया बचाय लइहो', 'कैसे खेलन जइबो सावन मा कजरिया, बदरिया घेर आई ननदी' और 'मिर्जापुर कइले गुलजार हो कचौड़ी गली सून कइले बलमा...' और अमीर खुसरो की हजार साल पुरानी सदाबहार कजरी तो जैसे इन गीतों का प्रतिनिधि उदाहरण मानी जाती है- 'अम्मा मेरे बाबा को भेजो री कि सावन आया।'

    हिंदी फिल्मों का कजरी से बड़ा सलोना रिश्ता रहा। एस.डी. बर्मन के संगीत में 'बन्दिनी' के लिए शैलेन्द्र की लिखी- 'अब के बरस भेज भइया को बाबुल/सावन में लीजो बुलाय रे...' और रोशन के संगीत में राग गौड़ मल्हार पर सृजित 'गरजत बरसत सावन आयो रे' (बरसात की रात) बेजोड़ हैं।

    काशी की एक ऐतिहासिक घटना भी ऐसी ही प्रचलित कजरी के आविर्भाव के संदर्भ में है, जिसे आज तीन सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी, कजरी-गायन में शीर्षस्थानीयता प्राप्त है। यह बात संभवत: वर्ष 1772 की है। मीरजापुर में सुंदर नाम की एक कजरी-गायिका अपनी शोहरत की बुलंदियों पर थी। भारत में अंग्रेजी उपनिवेशवाद की स्थापना के साथ जब बहुत सारे कलाकार, फनकार इधर-उधर भटकने लगे, तब सुंदर भी आश्रयहीन होकर कोठे पर बैठने के लिए मजबूर हुई। उसका गाना सुनकर काशी के एक योद्धा दाताराम नागर ने उसकी हरसंभव सहायता की और कोठे की परंपरा से बाहर निकालकर उसे गायिका के रूप में प्रतिष्ठित किया।

    यह वह समय था, जब काशी में महाराजा चेतसिंह का शासन था और उसी के साथ ही अंग्रेजों का वर्चस्व काशी में एकाएक बढ़ चुका था। महाराजा चेतसिंह को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया, जिसके विरुद्ध दाताराम नागर ने ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया। दाताराम नागर पकड़े गये और अंग्रेज जज ने उन्हें आजीवन काला पानी की सजा सुनाई। इस घटना से गायिका सुंदर के सब्र का बांध टूट गया और उसने बड़ी मार्मिक कजरी की रचना की- 'अरे रामा नागर नैया जाला, काले पनियां रे हरी।'