बनारस में गंगा तट के सिंधिया घाट पर आस्था के ठाट, घाट की पहचान है रत्नेश्वर महादेव मंदिर
गंगा की लहरों की तरह इसके घाट भी अनुपम हैं बनारस में गंगा किनारे बने चौरासी प्रमुख घाटों में हर एक की अलग कहानी और पहचान है।
वाराणसी, जेएनएन। गंगा की लहरों की तरह इसके घाट भी अनुपम हैं। बनारस में गंगा किनारे बने चौरासी प्रमुख घाटों में हर एक की अलग कहानी और पहचान है। घाटों का महत्व व महात्म्य काशी के वैभव से जुड़ा हुआ है। दशाश्वमेध घाट के सटे उत्तर दिशा में स्थित इस घाट पर कई देवालय भी हैं तो साफ सुथरी चौड़ी सीढिय़ों पर बैठकर गंगा को निहारना मनोहारी होता है। इस घाट का प्रमुख आकर्षण है रत्नेश्वर महादेव मंदिर। जो छह माह तक गंगा के पानी में डूबा रहता है। खासकर बारिश के दिनों में यह आधे से ज्यादा पानी में डूब जाता है...
सिंधिया यानी शिंदे घाट के ग्वालियर राजघराने से रिश्ते इतिहासकार वर्ष 1835 से मानते हैं। उस दौर में ग्वालियर की रानी बैजाबाई सिंधिया ने इस घाट पर कच्चे से पक्का और कई स्थाई निर्माण कराए। इसके बाद ही इस घाट को सिंधिया घाट के तौर पर पहचान मिली। घाट से जुड़े लोग और काशी के इतिहासकार मानते हैं कि संस्कृत की चर्चित पुस्तक गीर्वाण पद मंजरी में इस घाट का प्राचीन नाम वीरेश्वर घाट आया है। मान्यता है कि तेरहवीं सदी में वीरेश्वर नामक धार्मिक आस्थावान ने घाट पर आत्मवीरेश्वर शिव मंदिर की स्थापना की थी, इस वजह से इसकी मान्यता वीरेश्वर घाट के तौर पर भी लंबे समय तक रही। काशीखंड में भी इस घाट का जिक्र है। पुरनिए घाट के सम्मुख गंगा नदी में हरिश्चंद्र एवं पर्वतराज की मान्यता भी स्वीकारते हैं।
घाट पर स्थित हैं कई मंदिर
घाट पर वीरेश्वर, पर्वतेश्वर, दत्तात्रेय आदि चर्चित मंदिर स्थापित हैं। आजादी के बाद ग्वालियर राजघराने ने घाट को पुन: निर्मित कराया था। घाट के करीब गुजराती और मराठी समुदाय के लोगों की अधिकता है। जबकि शिवरात्रि, नवरात्रि व दीपावली के अतिरिक्त सावन भर आस्थावानों का रेला लगा रहता है। गंगा से जुड़े सभी विशिष्ट और प्रमुख वार्षिक आयोजन भी इस घाट पर प्रमुखता से आयोजित किए जाते हैं।
घाट की पहचान है रत्नेश्वर महादेव मंदिर
सिंधिया घाट का सबसे बड़ा आकर्षण किनारे गंगा में स्थित रत्नेश्वर महादेव मंदिर है। दोषपूर्ण होने के कारण यहां भले ही पूजा-अर्चना न होती हो, मगर शिल्प व बनावट की दृष्टि से यह सैलानियों के आकर्षण का केंद्र होता है। चार साल पहले आकाशीय बिजली गिरने के बाद भी इसको क्षति नहीं पहुंची। वहीं साल के छह माह यह पानी में डूबा रहता है, खासकर बारिश के तीन माह तो इसका सिर्फ शिखर ही दिखता है।
मंदिर से जुड़ी है यह कहानी
इस मंदिर के निर्माण बारे में भिन्न-भिन्न कथाएं कही जाती हैं। जानकारी के अनुसार जिस समय रानी अहिल्याबाई होल्कर शहर में मंदिर और कुंडों आदि का निर्माण करा रही थीं उसी समय उनकी दासी रत्नाबाई ने भी मणिकर्णिका कुंड के समीप एक शिव मंदिर का निर्माण कराने की इच्छा जताई, जिसके लिए उसने अहिल्याबाई से रुपये भी उधार लिए और इसे निर्मित कराया। अहिल्याबाई इसे देख अत्यंत प्रसन्न हुईं, लेकिन उन्होंने दासी से कहा कि वह अपना नाम इस मंदिर में न दें, लेकिन दासी ने बाद में अपने नाम पर ही इस मंदिर का नाम रत्नेश्वर महादेव रख दिया। इस पर अहिल्याबाई नाराज हो गईं और श्राप दिया कि मंदिर में बहुत कम दर्शन-पूजन होगा। तब से ही यहां दर्शन-पूजन नहीं होता।
सिंधिया घाट के जल क्षेत्र में नहीं डूबता बिल्व पत्र
इस घाट से जुड़ी एक अनूठी मान्यता व किंवदंती प्रचलित है। कहते हैं कि पूरे देश में मणिकर्णिका क्षेत्र की गंगा जलधार (सिंधिया घाट से दशाश्वमेध तक) में अर्पित बिल्व पत्र गंगा में समाहित हो जाता है। बाकी स्थानों पर वह बह जाता है। काशी में भी दूसरा ऐसा कोई दूसरा क्षेत्र नहीं जहां ऐसी मान्यता हो। इस घाट के ऊपर वीरेश्वर, पर्वतेश्वर, दत्तात्रेय आदि मंदिर संकरी और घुमावदार गलियों में सिद्ध-क्षेत्र में स्थित माने जाते हैं।
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