सारनाथ को विश्व धरोहर घोषित कराने की तैयारी, नए शोध के अभिलेख बताएंगे बदला हुआ इतिहास
वाराणसी से खबर है कि सारनाथ के इतिहास में अब सुधार होगा। ब्रिटिश खोजकर्ताओं के बजाय 18वीं सदी के काशी के जमींदार बाबू जगत सिंह को खोज का श्रेय दिया जाएगा। ASI सारनाथ के सभी शिलालेखों को बदलेगा। यूनेस्को टीम के आने से पहले यह कार्य पूरा हो जाएगा जिससे सारनाथ को विश्व धरोहर सूची में शामिल किया जा सके।

जागरण संवाददाता, वाराणसी। इतिहास करवट लेगा और अपनी सही जगह स्थापित होगा। बदल जाएगी धारा, सारनाथ के इतिहास का पता लगाने के लिए ब्रिटिश खोजकर्ताओं को दिया जाने वाला श्रेय अब उसके सही हकदार 18वीं सदी में काशी के जमींदार रहे बाबू जगत सिंह को दिया जाएगा।
इसके लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) सारनाथ के सभी शिलापट्टों व अभिलेखों को परिवर्तित करेगा। सारनाथ की खोदाई का कालक्रम भी पीछे जाएगा।
ये सब कार्य सारनाथ के खंडहर परिसर को विश्व धरोहर सूची में शामिल करने की प्रक्रिया के लिए 26 सितंबर को यहां यूनेस्को की टीम के पहुंचने के पूर्व कर लिया जाएगा।
सारनाथ पूरे विश्व में सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थों में गिना जाता है। महात्मा गौतम बुद्ध ने बोधिसत्व प्राप्त करने के बाद यहीं सर्वप्रथम अपने शिष्यों को धम्मोपदेश दिया था। अभी तक सारनाथ की खोदाई में निकले ऐतिहासिक साक्ष्यों का श्रेय वहां लगे मुख्य शिलापट्ट पर अंग्रेज खाेजकर्ताओं को दिया गया है।
मुख्य शिलापट्ट पर लिखा है, ‘साइट के पुरातात्विक महत्व को सबसे पहले 1798 ईस्वी में श्रीडंकन और कर्नल ई. मैकेंजी द्वारा उजागर किया गया। जिसके बाद अलेक्जेंडर कनिंघम (1835-36)’ मेजर किट्टो (1851-52), एफओ ओर्टेल (1904-05), सर जान मार्शल (1907), एमएच हरग्रेव्स (1914-15) और अंत में दयाराम साहनी द्वारा कराई गई।’
बाबू जगतसिंह को इतिहास में इस प्राचीन स्थल को नष्ट करने वाले के रूप में दर्शाया गया और उनकी कटु आलोचना की गई, यह अंग्रेजों ने शायद उनके बागी होने के बाद ऐसा किया था।
जबकि एक शोध अध्ययन टीम ने तत्कालीन आर्काइव, गजेटियर और अनेक संग्रहालयों तथा ब्रिटिश सरकार के अभिलेखों के अध्ययन के पश्चात यह सिद्ध किया है कि सारनाथ की ऐतिहासिक सच्चाई को उजागर करने वाली खोदाई सबसे पहले बनारस राजघराने से जुड़ बाबू जगतसिंह ने कराई थी।
बाबू जगत सिंह ने 1787-88 में वहां ईंटों का अंबार देख बाजार बनवाने में उनके उपयोग के लिए जब वहां खोदाई कराना आरंभ कराया तो धमेख स्तूप से लगभग 520 फीट पश्चिम 18 फीट गहराई में एक गोलक रूप बलुआ पत्थर के बक्से के भीतर बेलनाकार हरे रंग की एक संगमरमर मंजूषा व भगवान बुद्ध की प्रतिमा मिली।
संगमरमरी बक्से में मानव हड्डियां, क्षरित माेती, सोने की पत्तियां और अन्य मूल्यवान रत्न भी मिले। अस्थियों को उन्होंने सम्मानपूर्वक गंगा में विसर्जित करा दिया और दोनों बक्सों को कोलकाता के एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल को सौंपा दिया।
बाद में जब कनिंघम ने 1835 में उस जगह खोदाई कराई तो जगत सिंह द्वारा कराई गई खोदाई में शामिल एक मजदूर शंकर ने उसे 1787-88 में हुई खोदाई की जानकारी दी।
इससे स्पष्ट है कि 1787 में ही खोदाई में मूल स्तूप का पता चल गया था। इस स्तूप को धर्मराजिका स्तूप के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजों ने उस स्तूप को जगतसिंह स्तूप का नाम दिया लेकिन खोदाई का श्रेय स्वयं ले लिया।
इस संबंध में एएसआई के महानिदेशक यदुबीर रावत ने बताया कि सारनाथ पर हुआ नया शोध प्रामाणिक पाया गया है और उसके आधार पर अब वहां गलत इतिहास को सुधारा जाएगा और विभिन्न शिलापट्टों पर सही दिन-तिथि यानी काल तथा सच्चा इतिहास अंकित किया जाएगा।
अब वहां आने वाले पर्यटक सारनाथ की महत्ता की खोजकर्ताओं में अंग्रेजों की जगह काशी के जमींदार बाबू जगतसिंह का नाम पढ़ेंगे। यह कार्य यूनेस्को की टीम के आने के पूर्व पूरा कर लिया जाएगा।
जनवरी माह में लगाया जा चुका है एक सुधरा शिलापट्ट
शोध टीम द्वारा जुटाए गए तथ्यों के आधार पर शोध टीम के संरक्षक और बाबू जगत सिंह के वंशज बाबू प्रदीप सिंह ने इस आधार पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण व भारत सरकार के समक्ष इतिहास को ठीक करने का आवेदन दिया। तथ्यों को सही पाते हुए एएसआइ ने जनवरी माह में धर्मराजिका स्तूप पर लगे शिलालेख को बदल दिया।
लेकिन अभी भी सारनाथ में यत्र-तत्र लगे शिलालेखों, बोर्डों और संग्रहालय के अभिलेखों में पुराना गलत इतिहास अंकित है। शोध टीम एवं स्वजनों की मांग के अनुसार सभी तथ्योंं को सही कराया जा रहा है।
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