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    वाराणसी में रामनगर की रामलीला : अभिनय से अलग अनुष्ठान का मान, प्रसंगानुसार अलग-अलग स्थल अब पा गए स्थायी नाम

    By pramod kumarEdited By: Saurabh Chakravarty
    Updated: Sat, 24 Sep 2022 06:28 PM (IST)

    Ramlila of Ramnagar in Varanasi मंचन की चर्चा करें तो विश्व का सबसे बड़ा ओपन थिएटर ड्रामा और अध्यात्म की बात करें तो अभिनय से अलग एक अनुष्ठान के रूप में पूजित रामनगर की लीला आज काशी की सांस्कृतिक धरोहर है।

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    रामनगर की लीला आज काशी की सांस्कृतिक धरोहर है।

    वाराणसी, प्रमोद यादव : मंचन की चर्चा करें तो विश्व का सबसे बड़ा ओपन थिएटर ड्रामा और अध्यात्म की बात करें तो अभिनय से अलग एक अनुष्ठान के रूप में पूजित रामनगर की लीला आज काशी की सांस्कृतिक धरोहर है। लीला का अनुशासन और अपनी मूल प्रवृत्ति के प्रति आग्रही होना इसे देश भर की और प्रस्तुतियों से अलग करता है। ऐसी लीला जिसमें आज भी ‘लाइट-साउंड सिस्टम’ का प्रयोग निषिद्ध है। कहीं किसी झांकी के दर्शन-प्रदर्शन की जरूरत हुई तो श्वेत-लाल महताबी (आतिशी उजाला) में रूप निखर जाता है।

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    उन्मुक्त रंगमंच के इस छोर से उस छोर तक मौन पसर जाता है

    अनुशासन यह की हजारों की भीड़ एक पल में मौन हो जाती है जब लीला का चोबदार ‘सावधान चुप रहो’ की हांक लगाता है। इसके साथ उन्मुक्त रंगमंच के इस छोर से उस छोर तक मौन पसर जाता है। परिणाम स्वरूप संवाद अदायगी दर्शकों की आखिरी पंक्ति तक पहुंचती है और उसका मन छूती है। यह तो रही विराग की बात, राग के भाव देखें तो लीला नेमी स्थल तक जाने से पहले खुद को शृंगार से अलंकृत करते हैं। स्नान-ध्यान के बाद बंडी-धोती धारण कर टीका-चंदन, इत्र-फुलेल, काजल आदि से मानो खुद का दर्शक के रूप में वरण कर लेते हैं। हाथ में लोटा-सोटा, पोथी-पीढ़ा लेकर प्रसंग की प्रस्तुति से पूर्व ही लीला स्थल पर जगह ले लेते है।

    प्रसंगानुसार घूमंतू लीला भागती जाती है और श्रद्धालु नित अलग-अलग स्थलों की दौड़ लगाते हैं

    लगभग ढाई सौ साल पहले तत्कालीन काशिराज की संकल्प पूर्ति के लिए काष्ठ जिह्वा स्वामी ने रामचरित मानस की चौपाइयों के आधार पर लोकभाषा में इसके संवादों का अनुवाद किया। साथ ही दिशा-दूरी का मानक तय करते हुए लीला से जुड़े समस्त स्थलों का चिह्नांकन व नामांकन किया। प्रसंगानुसार घूमंतू लीला भागती जाती है और श्रद्धालु नित अलग-अलग स्थलों की दौड़ लगाते हैं।

    इसे रामजी और उनकी लीला के प्रति समर्पण ही कहेंगे की रामनगर में आपको बारह मास कहते लोग मिल जाएंगे कि अयोध्या से आ रहे हैं...., लंका जा रहे हैं...। कुछ ऐसा ही पंच स्वरूपों के साथ भी है। सावन में प्रथम गणेश पूजन के साथ प्रशिक्षण आरंभ होता है और जो किसी तपश्चर्या से कम नहीं। रामलीला समापन तक धर्मशाला में प्रवास और प्रभु राम, भइया लखन या माता सीता के नाम से ही संबोधन पाते हैं। श्रीरामपंचायतन के अलावा अन्य पात्र भी पीढ़ियों से थाती की तरह यह परंपरा निभाते हैं।

    रामनगर में ही चिमटा गाड़कर प्रवास करते हैं

    लीला का विरागी पक्ष साधु-संतों को भी अपनी ओर खींचता है। अयोध्या-मथुरा आदि नगरियों से आए कितने ही संन्यासी और साधु-संत लीला के पूर्ण होने तक रामनगर में ही चिमटा गाड़कर प्रवास करते हैं और पात्रों को कंधों पर एक स्थल से दूसरे स्थल तक पहुंचाकर अपने को धन्य मानते हैं।