भयमुक्त जीवन का रहस्य खोलती है 'निर्भय होय न कोय', वेदांत चिंतन के जरिए भय को समझने का नया दृष्टिकोण
भयमुक्त जीवन का रहस्य खोलती निर्भय होय न कोय पुस्तक में वेदांत चिंतन के जरिए भय को समझने का नया दृष्टिकोण सामने लाने का प्रयास किया गया है। भव को भेदते हुए इसके पक्षों को उजागर करने का प्रयास है।
ब्रजबिहारी, नई दिल्ली। मानव जाति निरंतर हो रहे प्रौद्योगिकी विकास के जरिए आर्थिक प्रगति के नित नए प्रतिमान गढ़ रही है। परिवर्तन की गति इतनी तीव्र है कि कुछ वर्षों नहीं, बल्कि कुछ महीनों के अंदर ही कोई नई प्रौद्योगिकी आकर हमें चौंका जाती है। अतीत में हमारी समस्याएं बाहरी परिस्थितियों के कारण पैदा होती थीं। मसलन, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा। वर्तमान में हम इन समस्याओं को काफी हद तक हल कर चुके हैं। अब हमारी महत्वाकांक्षा दूसरे ग्रहों पर बसने और मौत को मात देने की हो गई है।
इस आधार पर देखा जाए तो वर्तमान काल मनुष्य के इतिहास का सबसे अच्छा समय होना चाहिए, लेकिन हो रहा है ठीक इसके उलट। बाहरी दुनिया में लगभग हर चीज पर विजय प्राप्त करने के बावजूद मानव जाति पहले से कहीं ज्यादा गुलाम और विवश नजर आ रही है। इसकी वजह है भौतिक चीजों की आसक्ति और उससे पैदा होने वाला भय। जो हमारे पास है, वह सब कुछ छिन जाने का भय। अगर आप इस डर से मुक्ति पाने का रास्ता ढूंढ़ रहे हैं, तो आपको वेदांत मर्मज्ञ आचार्य प्रशांत की पुस्तक 'निर्भय होय न कोय' जरूर पढऩी चाहिए।
आज हम स्वयं को जिन परिस्थितियों के बंधन में जकड़ा हुआ पाते हैं, उसकी प्रतिक्रिया के रूप में आचार्य प्रशांत वेदांत के सार को दुनिया के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। उनका उद्देश्य वेदांत के शुद्ध सार को सभी तक पहुंचाना है और उसके माध्यम से आज की समस्याओं को हल करना है। वर्तमान की ये सभी समस्याएं मनुष्य के स्वयं के प्रति अज्ञान के कारण पैदा हुई है। इसलिए इनका समाधान कहीं बाहर नहीं मिलेगा। सिर्फ सच्चे आत्मज्ञान से ही उन्हें हल किया जा सकता है। डर से संबंधित प्रचलित मान्यताओं के बीच यह पुस्तक अपने पाठकों को डर को समझने और उसे दूर करने का एक नया दृष्टिकोण देती है।
हम सभी डरते हैं कि कहीं ऐसा न हो जाए कि जो मैं चाहता हूं, वह मुझे न मिले या कहीं ऐसा न हो कि जो मेरे पास है, वह मुझसे छिन जाए। एक दूसरे तरीके का भी डर होता है, जो आमजनों के जीवन में नहीं बल्कि संतों के जीवन में पाया जाता है। वह भय दुनिया के खो जाने का नहीं, बल्कि उसके खोने का है, जिसके खो जाने से सब कुछ खो जाता है। यही असली डर है, जो हम सबके अंदर होना चाहिए। जिसके अंदर यह डर समा गया, वह भौतिक चीजों के छिन जाने से डरेगा नहीं, बल्कि संसार पथ पर निर्भय होकर जीना सीख जाएगा। जीवन में असली डर आ गया तो छोटे-छोटे डर अपने आप पीछे छूट जाएंगे।
आचार्य प्रशांत की यह पुस्तक वास्तव में भारत की ज्ञान परंपरा का ही विस्तार है। हमारे ऋषि-मुनियों ने वर्षों तक समाधिस्थ होकर जीवन, मृत्यु और संसार के गूढ़ रहस्यों को सुलझाने का जो प्रयास किया, उससे न सिर्फ अपना देश, बल्कि पूरा विश्व आलोकित हुआ। सूर, कबीर और तुलसी ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया। आधुनिक काल में भी देश में कई ऐसे मनीषी पैदा हुए, जिन्होंने पूरी दुनिया में वेद, वेदांत और उपनिषदों के जटिल रहस्यों को उद्घाटित करने और उसे जन-जन तक पहुंचाने का काम किया।
आइआइटी और आइआइएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से डिग्री हासिल करने और सिविल सेवा में सफल होने के बाद आचार्य प्रशांत ने दुनिया को भय से मुक्ति दिलाने को ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया है। पिछले दस वर्षों से भी अधिक समय से वे देश-विदेश के विविध श्रोताओं के साथ संवाद कर रहे हैं। श्रोता उनसे प्रश्न पूछते हैं और वे उनका उत्तर देते हैं। प्रस्तुत पुस्तक इन्हीं प्रश्नों और उनके उत्तरों का संकलन है। इसलिए इसकी भाषा-शैली बोलचाल वाली है। कई प्रश्न एकाधिक बार पूछे गए हैं और कई उत्तर भी मिलते-जुलते हैं। इसके बावजूद यह पुस्तक काफी उपयोगी है। खासकर उनके लिए, जो जीवन संघर्ष की उलझनों में स्वयं को भुला चुके हैं और फिर से अपने स्व को प्राप्त करना चाहते हैं।
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पुस्तक का नाम : निर्भय होय न कोय
लेखक : आचार्य प्रशांत
प्रकाशक : राजपाल एंड संस
मूल्य : 475 रुपये