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    लौटेगा नागरी प्रचारिणी सभा का वैभव, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट के विशेष प्रोजेक्ट में शामिल हुई काशी

    By Saurabh ChakravartyEdited By:
    Updated: Mon, 20 Jan 2020 06:31 PM (IST)

    परतंत्र भारत में हिंदी के माथे की बिंदी बन उसे संरक्षित करने वाली नागरी प्रचारिणी सभा काशी का वैभव लौटने वाली है।

    लौटेगा नागरी प्रचारिणी सभा का वैभव, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट के विशेष प्रोजेक्ट में शामिल हुई काशी

    वाराणसी, जेएनएन। परतंत्र भारत में हिंदी के माथे की बिंदी बन उसे संरक्षित करने वाली नागरी प्रचारिणी सभा काशी का वैभव लौटने वाली है। इसके लिए केंद्र व प्रदेश सरकार ने पहल की है। प्रदेश सरकार जहां इसमें भारतेंदु अकादमी खोलने की घोषणा कर चुकी है तो केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय इसमें सहेजी गई दुर्लभ पांडुलिपियों को संरक्षित करेगा। इसे इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फार आर्ट की विशेष परियोजना के तहत सजाया-संवारा जाएगा।

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     इसकी जिम्मेदारी केंद्रीय मंत्रालय में सचिव का ओहदा प्राप्त सीईओ डेवलपमेंट ऑफ म्यूजियम एंड कल्चरल स्पेसेज राघवेंद्र सिंह को दिया गया है। इसके लिए शनिवार को बनारस दौरे पर आए सीईओ राघवेंद्र सिंह भले ही नागरी प्रचारिणी सभा तक नहीं जा पाए लेकिन सभा के अपर सचिव सभाजीत शुक्ला से सेलफोन पर वार्ता कर जानकारी ली। उन्होंने वस्तुस्थिति जानने के लिहाज से जल्द ही निरीक्षण का भरोसा दिया।

    नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से स्थापित आर्य भाषा पुस्तकालय में हजारों पत्र- पत्रिकाओं की फाइलें, लगभग 50 हजार हस्तलेख व हिंदी के अनुपलब्ध ग्रंथों का विशाल संग्रह है। सभा की ओर प्रकाशित शब्दकोश व अन्य ग्रंथ भी शामिल हैैं। हिंदी को सम्मान दिलाने और प्रचार प्रसार के उद्देश्य से तब नौवीं के छात्र रहे बाबू श्यामसुंदर दास, पं. रामनारायण मिश्र व शिवकुमार सिंह ने वर्ष 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की। आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास को अध्यक्ष बनाया गया। उस समय इसकी बैठकें सप्तसागर के सभा घुड़साल में हुआ करती थीं। कुछ ही समय में संस्था के स्वतंत्र भवन ने आकार लिया और पहले ही साल में महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जार्ज ग्रियर्सन,अंबिकादत्त व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे ख्यात विद्वान इससे जुड़ गए। सभा ने स्थापना के सात साल में ही हिंदी आंदोलन चलाया। इससे राजा-महाराजाओं समेत 60 हजार विशिष्ट जनों को जोड़ते हुए न्यायालयों व सरकारी दफ्तरों में देवनागरी लिपि में हिंदी के प्रयोग की अनुमति का दबाव बनाया। पं . मदन मोहन मालवीय और बाबू श्यामसुंदर दास के नेतृत्व वाले इस आंदोलन को हिंदी का पहला सत्याग्रह माना गया और सभा के अनेक कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए।