ई हौ रजा बनारस - आला-निराला मान महल वेधशाला
कुमार अजय, वाराणसी : सर्व विद्या की राजधानी काशी के खगोलविदों को प्रायोगिक धरातल की सौगात है मानमहल वेधशाला।
कुमार अजय, वाराणसी : सर्व विद्या की राजधानी काशी के खगोलविदों को प्रायोगिक धरातल की सौगात देने के लिए राजस्थान की राजधानी जयपुर के संस्थापक सवाई राजा जय सिंह ने सन् 1734 के आस-पास मान महल वेधशाला का निर्माण कराया। वेधशाला दशाश्वमेध घाट के निकट गंगा के पश्चिमी तट पर उसी आलीशान महल के दूसरे तल पर है जो आमेर (राजस्थान) के राजा तथा राजा जय सिंह के पुरखे महाराजा मान सिंह ने सन् 1600 में बनवाया था। राजस्थानी वास्तु शिल्प की नायाब कारीगरी की मिसाल बलुआ पत्थरों से निर्मित मान महल तो अपने आप में बेजोड़ है ही, वेधशाला के संयोग ने इस कृति को और वैभवशाली बना दिया है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (सारनाथ मंडल) द्वारा संरक्षित यह धरोहर आज काशी के मान बिंदुओं में से एक है।
पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार खगोल विद्या के राष्ट्रव्यापी प्रसार के ध्येय से राजा जय सिंह ने 1724 में दिल्ली, 1719 में उज्जैन, 1737 में मथुरा और सन् 1728 में जयपुर में भी ऐसी वेधशालाओं का निर्माण कराया था।
मान महल की अंगनाई से होकर महल की पहली छत पर स्थित वेधशाला के मुक्ताशीय प्रांगण में पहला कदम रखते ही ऐसा लगता है मानो जंतर-मंतर के किसी मेले में आ खडे़ हुए हैं। भांति-भांति के खगोलीय यंत्रों से पहला परिचय वास्तव में है ही इतना रोमांचकारी। शायद ऐसी ही अनुभूतियों के कारण कई जगहों पर इन वेधशालाओं की पहचान जंतर-मंतर के रूप में ही है।
छत पर पहला कदम रखते ही वेधशाला के दक्षिणी कोण पर हमारा परिचय होता हाफ पैराबुला (अर्ध परवलय) की आकृति से अंकित दक्षिणोत्तर भित्ति यंत्र से जिससे ग्रह-नक्षत्रों के अंतर और नतांश नापे जाते हैं। वेधशाला के दक्षिण मध्य में अवस्थित है सभी यंत्रों में प्रमुख सम्राट यंत्रम। वर्तुलाकार सा यह यंत्र नीचे से ऊपर गए एक सीढ़ीदार पथरीले गलियारे से आधा-आधा विभक्त है। अंकित परिचय के अनुसार इस यंत्र से ग्रह-नक्षत्रों की क्रांति, विश्वांश और समय की चाल मापी जाती है। पास में ही 'नाड़ी वलय' यंत्र है जिससे सूर्यादि ग्रहों की चाल और स्थिति का आकलन किया जाता है।
वेधशाला के पूर्वी छोर पर दो आधारों से जुड़े धातुकीय यंत्र 'चक्र यंत्रम' से ग्रह नक्षत्रों क्रांति और विषुव काल का ज्ञान होता है। गोलाकार परिधि में वृत्ताकार चबूतरे पर दंड सा स्थित है। 'दिगांश यंत्र' जिसके साथ तुरीय यंत्र लगाने से ग्रह-नक्षत्रों के उन्नतांश आगणन किया जाता है। वेधशाला के पर्यवेक्षक बताते हैं कि वेधशाला के ये यंत्र वर्तमान में कालातीत हो जाने से ठीक-ठाक काम करने की स्थिति में नहीं हैं।
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रचना के रचयिता
अभिलेखों में दर्ज सूचनाओं के मुताबिक इस योजना को जमीन पर उतारने में प्रमुख भूमिका समर्थ जगन्नाथ की थी जो स्वयं एक दक्ष ज्योतिषी थे। काम जयपुर के स्थापत्यकार मोहन द्वारा सरदार सदाशिव की देख-रेख में संपन्न हुआ। 19वीं शताब्दी तक वेधशाला ध्वस्त हो चुकी थी। सन 1912 में जयपुर के तत्कालीन राजा सवाई माधो सिंह के आदेश पर वेधशाला का जीर्णोद्धार हुआ। उस समय के प्रंबधकारों में लाला चिमनलाल दारोगा, चंदूलाल ओवरसीयर, राज ज्योतिषी पं. गोकुलचंद तथा भगीरथ मिस्त्री के नाम वेधशाला की एक दीवार पर खुदे हैं।