चिदंबरम पिल्लै ने न केवल ब्रिटिश कंपनियों को चुनौती दी, बल्कि स्वदेशी के नारे को साकार भी किया
ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करने के साथ ही स्वावलंबन की राह में जल मार्ग को साधन बनाने वाले वी. ओ. चिंदबरम पिल्लै दक्षिण भारत में स्वदेशी आंदोलन के सफल समर्थक थे। भारतीय जहाज उद्योग को सम्मानजनक स्थान दिलाने वाले चिंदबरम पिल्लै पर अनंत विजय का आलेख...

नई दिल्ली [अनंत विजय]। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लोगों ने एकजुट होकर भाग लिया और योगदान दिया। यह इतिहासकारों की समस्या रही कि उन्होंने स्वाधीनता का इतिहास लिखते समय स्वतंत्रता संग्राम के कई ऐसे नायकों को या तो भुला दिया या उनके महत्व का आकलन सही तरीके से नहीं किया। दक्षिण भारत के स्वाधीनता सेनानियों की तो ब्रिटिश इतिहासकारों ने उपेक्षा ही की।
सुनील खिलनानी ने पुस्तक ‘इनकारनेशंस’ में इतिहासकार डेविड वाशब्रुक को उद्धृत किया है। उनके मुताबिक ‘1895 से 1916 के बीच मद्रास (अब चेन्नई) की सड़कों पर कोई ब्रिटिश विरोधी कुत्ता शायद ही भौंका होगा। तूतीकोरन अपवाद था।’ जब डेविड वाशब्रुक तूतीकोरन को अपवाद मान रहे थे तो उसकी वजह थे वी. ओ. चिंदबरम पिल्लै। चिंदबरम पिल्लै ने न केवल ब्रिटिश कंपनियों को चुनौती दी, बल्कि स्वदेशी के नारे को साकार भी किया। उन्होंने समंदर में ब्रिटिश कंपनियों के एकाधिकार को चुनौती दी थी। इसकी भी बेहद दिलचस्प कहानी है।
जुड़ गया मन देशसेवा से : सितंबर 1872 में जन्मे चिदंबरम पिल्लै पढ़ाई पूरी करने के बाद वकालत करने के लिए तूतीकोरन पहुंचे थे। यहां वो शैव सभा के संपर्क में आए और उनका रुझान साहित्य और संस्कृति की ओर हुआ। शैव सभा में सक्रिय चिदंबरम पिल्लै का लेखकों से संपर्क बढ़ा और एक दिन किसी साथी ने उनको बाल गंगाधर तिलक के लेख पढ़ने को दिए। चिदंबरम पिल्लै पर बाल गंगाधर तिलक के लेखन का जबरदस्त प्रभाव पड़ा और उनका युवा मन देश को गुलामी की बेड़ियों से स्वतंत्र करवाने के लिए तड़पने लगा।
बहिष्कार के सक्रिय नेता : इस बीच अंग्रेजों ने बंगाल के विभाजन का निर्णय लिया, जिसकी देशभर में कठोर प्रतिक्रिया हुई। देशभर में अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार आरंभ हुआ। युवा चिदंबरम पिल्लै ने भी विदेशी वस्तुओं, अंग्रेजों के स्कूलों और अन्य संस्थाओं के बहिष्कार की भी अपील की। अब वो सक्रिय राजनीति में आ चुके थे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं और संस्थाओं के बहिष्कार के लिए अपने इलाके के लोगों को शपथ दिलानी शुरू की। उन्होंने लोगों को पानी में खड़े होकर मां काली की शपथ दिलाई कि वो विदेशी सामान और संस्थाओं का बहिष्कार करेंगे। इसका जबरदस्त असर तूतीकोरन और आसपास के इलाके में हुआ। इसी दौरान चिदंबरम पिल्लै ब्रिटिश पुलिस की नजरों में आ गए।
सागर पर चली स्वदेशी नाव : चिदंबरम पिल्लै का मन इतने से नहीं भरा था और वो कुछ बड़ा करके ब्रिटिश राज को चुनौती देना चाहते थे। वो जिस इलाके में रहते थे वह व्यापार का बड़ा केंद्र था। वहां के समुद्री तट पर ब्रिटिश इंडिया स्टीम नेविगेशन कंपनी के जहाजों का कब्जा था। इनके माध्यम से ब्रिटिश कंपनियां भारतीय उत्पाद एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर बेचतीं और मुनाफा कमाती थीं। पिल्लै के मन में विचार पनप रहा था कि एक देसी जहाज कंपनी होनी चाहिए ताकि यहां के व्यापारियों को लाभ मिल सके। उन्होंने अप्रैल 1906 में एक योजना बनाई और उस पर अमल आरंभ कर दिया। दिसंबर 1906 में पिल्लै ने स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी बनाई और इसका एक जहाज समंदर में उतार दिया। इनकी कंपनी का दाम कम होने की वजह से इनको अधिक यात्री और कारोबारी मिलने लगे। इससे बौखलाई ब्रिटिश कंपनी ने पुलिस और प्रशासन का सहारा लिया। स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी को कानूनी अड़चनें लगाकर बाधित करने का प्रयास किया जाने लगा, लेकिन चिदंबरम पिल्लै ने हार नहीं मानी। उन्होंने पैसे जुटाकर दो और जहाज खरीद लिए। ये दोनों जहाज पहले वाले से बड़े थे। इन दोनों जहाजों पर चिदंबरम पिल्लै ने हरा, पीला और लाल झंडा पेंट करवाकर बड़े-बड़े अक्षरों में वंदे मातरम लिखवा दिया था। उनका ये प्रयोग बहुत सफल रहा था और लोग उनको स्वदेशी पिल्लै कहने लगे थे।
हड़ताल से घबराए अंग्रेज : ये सब चल ही रहा था कि पिल्लै ने एक और युवा साथी शिवम के साथ मिलकर तूतीकोरन में मिल मजदूरों का आंदोलन आरंभ कर दिया। अधिक सुविधा और वेतन की मांग करते हुए कोरल मिल में हड़ताल हो गई। यह हड़ताल इतनी सफल रही कि अंग्रेजों को मजदूरों से समझौता करना पड़ा। इसके बाद पूरे इलाके में चिदंबरम पिल्लै की लोकप्रियता और बढ़ गई और इससे बढ़ा उनका हौसला भी, लेकिन अंग्रेजों ने चिदंबरम पिल्लै को फंसाने की योजना बना ली थी और उनको देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इनकी गिरफ्तारी के विरोध में तूतीकोरन में भयंकर हिंसा और आगजनी हुई थी। अंग्रेजी सरकार ने आनन-फानन में चिदंबरम पिल्लै को उम्रकैद की दोगुणी सजा सुनाकर जेल भेज दिया। जेल में उनसे हाड़तोड़ मेहनत करवाई गई। चिंदबरम पिल्लै ने हाईकोर्ट में अपील की और उनका केस प्रीवी काउंसिल तक गया। सजा कम हुई और उन्हें चार साल बाद रिहा कर दिया गया। इन सालों में स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी लगभग बंद हो चुकी थी और जहाज बिक गए थे। उनका वकालत का लाइसेंस रद कर दिया गया था। बाद में महात्मा गांधी से मतभेद के चलते पिल्लै ने 1920 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। कुछ दिन बैंक मैनेजर की नौकरी करने के बाद वकालत का लाइसेंस वापस लेने की अपील की, जिसको न्यायालय ने मान लिया। वो फिर से वकालत भी करने लगे और कांग्रेस पार्टी भी ज्वाइन कर ली, मगर धीरे-धीरे चिदंबरम पिल्लै गुमनामी में चले गए और 1936 में तूतीकोरन के कांग्रेस के कार्यालय में उन्होंने अंतिम सांसें लीं।
स्वदेशी का झंडा बुलंद करने वाले इस स्वाधीनता सेनानी ने शिपिंग में जिस तरह के स्वावलंबन की राह दिखाई, उस पर चलकर भारतीय कंपनियों ने आगे भरपूर काम किया।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।