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    हिंदी साहित्‍य का 'हरिश्‍चंद्र' जिसने कम समय में ही हिंदी को शिखर पर पहुंचा दिया Varanasi news

    By Abhishek SharmaEdited By:
    Updated: Mon, 09 Sep 2019 04:46 PM (IST)

    धर्म-आध्‍यात्‍म साहित्‍य और संस्‍कृति की राजधानी काशी में साहित्‍य जगत की कई महान विभूतियों ने जन्‍म लिया और हिंदी साहित्‍य की दुनिया को समृद्ध किया।

    हिंदी साहित्‍य का 'हरिश्‍चंद्र' जिसने कम समय में ही हिंदी को शिखर पर पहुंचा दिया Varanasi news

    वाराणसी, जेएनएन। धर्म-आध्‍यात्‍म, साहित्‍य और संस्‍कृति की राजधानी काशी में साहित्‍य जगत की कई महान विभूतियों ने जन्‍म लिया और हिंदी साहित्‍य की दुनिया को समृद्ध किया। इसी कड़ी में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम सबसे ऊपर आता है। उनका जन्म आज के ही दिन यानि नौ सितंबर को तत्‍कालीन काशी के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता गोपालचंद्र भी उस समय एक अच्छे कवि थे और 'गिरधरदास' उपनाम से लेखन किया करते थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र पांच वर्ष के थे तो माता की मृत्यु और दस वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गयी। वाराणसी का क्वींस कॉलेज था जहां से उनकी शिक्षा दीक्षा शुरू हुई।

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    उस समय प्रसिद्ध लेखक शिव प्रसाद सितारे हिंद से भारतेन्दु ने ज्ञान हासिल करने के साथ कई भाषाओं में खुद को पारंगत किया। चूंकि उनको साहित्‍य की प्रतिभा विरासत के तौर पर मिली थी। लिहाजा बचपन से ही उनमें लेखक और रचनाकार पलता बढता और समृद्ध होता रहा। धन के अत्यधिक व्यय के कारण भारतेंदु कर्जदार हो गए और 1885 में कम आयु में ही उनकी मृत्‍यु हो गई। भारतेन्दु हरिश्‍चंद्र के द्वारा हिंदी सेवा की वजह से ही 1857 से लेकर 1900 तक का समय भारतेंदु युग के तौर पर आज भी हिंदी साहित्‍य के विद्यार्थियों को पढाया और बताया जाता है। माना जाता है कि पंद्रह वर्ष में ही भारतेंदु ने साहित्य की सेवा प्रारंभ कर दी थी।

    अठारह वर्ष की आयु में उन्होंने 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकाली जिसमें उस समय के शीर्ष विद्वानों की रचनाएं प्रकाशित होती थीं। बीस वर्ष की आयु में ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बने तो आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप में उनकी पहचान बनती चली गई। वाराणसी से ही वर्ष 1868 में 'कविवचनसुधा' और 1873 में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' और वर्ष 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाला बोधिनी' आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। साहित्‍य की सेवा के साथ ही अन्‍य साहित्यिक संस्थाओं को भी उन्‍होंने काशी में समृद्ध कर आने वाले समय में काशी में लेखकों के लिए मंच तैयार किया। उनके द्वारा की गई साहित्यिक सेवाओं के कारण आज भी वाराणसी की पहचान साहित्‍य के शीर्ष पर विद्यमान है।