आजादी के पहले भी होते थे विस चुनाव..
सुल्तानपुर, जिन्होंने इतिहास का अध्ययन नहीं किया है उन्हें शायद ही इसकी जानकारी हो कि आजादी के पहले भी यूपी में आमचुनाव होते थे। प्रांतीय विधानसभा के लिए बाकायदा वोट डाले जाते थे। महारथियों में रोचक जंग देखने को मिलती थी। सुल्तानपुर में भी तमाम दिग्गज राजे-रजवाड़े हों या आम आदमी आपस में लड़ते थे चुनावी जंग। किसी को मिलती थी शिकस्त तो कोई पहनता था ताज।
सन् 1935 में ब्रिटिश हुकूमत ने भारत में विधेयक पारित किया था। इसके अंतर्गत प्रातीय विधानसभाओं के चुनाव का फैसला किया गया। उस दौर में असरदार रही कांग्रेस ने इसका विरोध किया, लेकिन भीतरी दबाव के चलते सन् 1937 में उसने इस चुनाव के लिए सरकार को सहमति दे दी। सुल्तानपुर में यूपी (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) की विधानसभा के लिए चार सीटें तय की गई। सदर सीट से हिंदू महासभा के प्रत्याशी सुंदरलाल गुप्त ने कांग्रेस के बाबू गनपत सहाय को शिकस्त देकर सबको आश्चर्य चकित कर दिया। कादीपुर सीट से कांग्रेस समाजवादी दल के रामनरेश सिंह दियरा रियासत के कुंवर कौशलेन्द्र प्रताप शाही को शिकस्त देकर विजेता बने तो अमेठी रियासत ने भी इस लोकतंत्रात्मक जंग में अपना सिक्का जमाया। अमेठी सीट से युवराज जंग बहादुर सिंह निर्वाचित हुए। उस दौर में बेहद प्रभावशाली रही हसनपुर रियासत के राजा अहमद अली खां मुस्लिम आरक्षित सीट से निर्वाचित हुए। इस आम चुनाव के बाद सूबे में निर्वाचित सरकार का गठन हुआ और गोविंद वल्लभ पंत ने मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली थी। आजादी के पहले दूसरा और आखिरी विस चुनाव सन् 1946 में हुआ। इस चुनाव में भी दिग्गजों के बीच रोचक जंग देखी गई। इस बार भी सदर सीट कांग्रेस के बाबू गनपत सहाय विजयी रहे। अमेठी सीट से उस दौर के दिग्गज राजनेता शीतला प्रसाद सिंह निर्वाचित हुए। रामनरेश सिंह ने कादीपुर में अपना वर्चस्व कायम रखा। वे फिर जीत दर्ज करने में सफल हो गए। इस बार राजा हसनपुर अहमद अली खां की जगह नाजिम अली ने मुस्लिम आरक्षित सीट से जीत दर्ज की। एक बार फिर संयुक्त प्रांत (मौजूदा उत्तर प्रदेश) की अंतरिम सरकार का गठन हुआ। पं.गोविंद वल्लभ पंत को मिली प्रदेश की कमान। आजादी के बाद भी लोकतंत्र के ये दिग्गज राजनेता विभिन्न चुनावों में हाथ आजमाते रहे। कुछ को कामयाबी मिली तो कुछ बदलते वक्त से कदमताल नहीं मिला सके।
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