विश्व में गूंजा सिद्धार्थनगर का नाम, पिपरहवा अवशेष बने सांस्कृतिक पहचान
सिद्धार्थनगर जिले का पिपरवा, जहाँ बुद्ध के अवशेष मिले थे, आज भारत की सांस्कृतिक कूटनीति का केंद्र बन गया है। 1898 में खोजे गए ये अवशेष, भारत और बौद्ध देशों के बीच शांति और एकता का प्रतीक हैं। वर्तमान में, भूटान में इन अवशेषों की प्रदर्शनी आयोजित की जा रही है, जिसमें श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ रही है। इतिहासकारों का मानना है कि इससे सिद्धार्थनगर वैश्विक बौद्ध मानचित्र पर अपनी पहचान बना रहा है।

जागरण संवाददाता, सिद्धार्थनगर। जनपद की पावन धरती पिपरवा, जो कभी भगवान बुद्ध की पदचिह्नों से धन्य हुई थी, आज फिर विश्व मंच पर अपनी आध्यात्मिक गूंज बिखेर रही है। पिपरवा से प्राप्त बुद्ध के पवित्र अवशेष अब भारत की सांस्कृतिक कूटनीति के प्रतीक बन चुके हैं। यह वही स्थल है, जहां 1898 में अंग्रेज पुरातत्वविद डब्ल्यू. सी. पेपे ने खोदाई के दौरान भगवान बुद्ध के पावन अस्थि अवशेष खोजे थे।
आज वही पिपरवा रिलिक्स भारत व बौद्ध देशों के बीच शांति, करुणा व सांस्कृतिक एकता के सेतु बन गए हैं। भारत सरकार ने इन्हें बुद्ध कूटनीति के केंद्र में रखकर थाईलैंड, वियतनाम, रूस और भूटान जैसे देशों में आयोजित अंतरराष्ट्रीय बौद्ध प्रदर्शनी और महोत्सवों में प्रमुख रूप से प्रदर्शित किया है। इन दिनों भूटान की राजधानी में 8 से 18 नवंबर तक भगवान बुद्ध के दो पवित्र अवशेषों की प्रदर्शनी लगी है, जहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ रही है।
इतिहासकार डा. शरदेंदु त्रिपाठी कहते हैं कि यह सिद्धार्थनगर के लिए गर्व का क्षण है कि 127 वर्ष पहले पिपरवा की पवित्र धरती से निकले अवशेष आज भारत की सांस्कृतिक कूटनीति के संवाहक बन गए हैं। उनका मानना है कि इससे न केवल सिद्धार्थनगर, बल्कि पूरा उत्तर प्रदेश वैश्विक बौद्ध मानचित्र पर अपनी सशक्त पहचान बना रहा है। पिपरहवा न केवल बुद्ध के जीवन का साक्षात प्रमाण है, बल्कि कपिलवस्तु सभ्यता का जीवंत प्रतीक भी है।
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1898 की खोदाई में मिले रत्नजटित पात्र, बलुआ पत्थर का संदूक, स्वर्णाभूषण और ब्राह्मी लिपि में अंकित शिलालेख यह प्रमाणित करते हैं कि यह स्थान बुद्ध के शाक्य वंश से जुड़ा था। बाद में 1971-77 में के. एम. श्रीवास्तव ने दो प्रस्तर मंजूषाएं खोजीं जिनमें 22 पवित्र बुद्ध अवशेष सुरक्षित मिले। इन पुरावशेषों में से कुछ हिस्से को राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली व कुछ को कोलकाता संग्रहालय में रखा गया है।
आज जब इन अवशेषों की सुगंध भूटान से विश्व के कोने-कोने तक पहुंच रही है, तो सिद्धार्थनगर का हर नागरिक गर्व से कह सकता है कि यह वही मिट्टी है, जिसने भगवान बुद्ध के संदेश को जन्म दिया था और अब वही संदेश विश्व में शांति का दीप जला रहा हैं।

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