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    Sambhal riots 1978: किसी को चाकुओं से गोदा, किसी को जिंदा जलाया; खौफनाक मंजर याद कर आज भी सिहर उठते हैं पीड़ित

    Updated: Fri, 10 Jan 2025 08:39 AM (IST)

    संभल के इतिहास को कलंकित करने वाले 1978 दंगे की जांच दोबारा हो सकती है। विधान परिषद सदस्य श्रीचंद शर्मा के सदन में मुद्दा उठाने के बाद गृह विभाग ने जिला प्रशासन से सात दिन के भीतर रिपोर्ट तलब की है। मामले की गंभीरता को देखते हुए जिला प्रशासन आख्या के लिए संयुक्त कमेटी बना रहा है। आइए जानते हैं संभल दंगे की पूरी कहानी।

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    संभल में 24 नवंबर को हिंसा के बाद सड़क पर पड़े ईंट-पत्थर।- जागरण आर्काइव

    जागरण संवाददाता, संभल। Sambhal riots 1978: 29 मार्च 1978 को सूर्योदय के साथ सांप्रदायिक दंगे की आग सुलग चुकी थी। मार-काट शुरू हो गई। आगजनी में शहर जल उठा। हिंदुओं के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को आग लगा दी। फायरिंग, लाठियां, लोहे के सरियों के साथ तरह-तरह के हथियार चलाए जा रहे थे। लोगों के सिर काट दिए गए थे। किसी के हाथ तो किसी के पैरों को अलग कर दिया था। शहर का कोना-कोना खौफ में डूबा था। किसी के पिता को जिंदा जला दिया था, किसी के स्वजन को। कई परिवारों के सामने व्यवसाय खत्म होने से सड़क पर आने की नौबत आ गई।

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    पीड़ितों का आरोप है कि काफी संपत्ति को वक्फ में शामिल कर लिया गया। जांच में बड़ा फर्जीवाड़ा मिल सकता है। विष्णु शरण रस्तोगी बताते हैं कि दंगे के दिन खुद को बचाना मुश्किल था। सड़क पर निकलना मौत को दावत देना ता। खासतौर पर हिंदू पूरी तरह से डरे हुए थे। सभी जान बचाने की जिद्दोजहद में जुटे थे। डर की वजह से बहुत लोग पलायन कर गए।

    क‍िसी का काट द‍िया गला तो क‍िसी के हाथ-पैर

    अनिल रस्तोगी ने बताया कि दंगाइयों ने उनकी आढ़त की दुकान में भी आग लगा दी। असुरक्षित माहौल की वजह से मकान बेचना पड़ा। विनीत गोयल बताते हैं कि दंगाइयों ने हमारी फैक्ट्री में घुसकर मजदूरों को काटा था। किसी का गला अलग किया तो किसी के हाथ-पैर काट दिए थे। मिट्टी का तेल व पेट्रोल छिड़कर आग लगा दी गई थी। उनकी पिता की हत्या करके शव टायर से जला दिया था।

    देवेंद्र रस्तोगी बताते हैं कि दंगे के बाद वहां का माहौल रहने लायक नहीं बचा था। इसलिए मकान को औने-पौने दामों में बेचकर यहां से चले गए।

    ऐसे भड़का था दंगा

    संभल के महात्मा गांधी मेमोरियल डिग्री कॉलेज की प्रबंध समिति के आजीवन सदस्य बनने के लिए ट्रक यूनियन के नाम से 10 हजार रुपये का चेक कॉलेज को भेजा गया था, जिसकी रसीद मंजर शफी के नाम पर थी। मंजर शफी आजीवन सदस्य बनना चाहता था। लेकिन, ट्रक यूनियन के पदाधिकारियों ने उसे अधिकृत करने से इनकार कर दिया। लिहाजा कॉलेज की ओर से मंजर शफी को मान्यता नहीं दी गई। इसी के बाद विवाद बढ़ता गया। एक से एक कड़ी जुड़ने के बाद सांप्रदायिक दंगा फैल गया। बताया जाता है कि दंगे की अगुवाई मंजर शफी कर रहा था। 29 मार्च 1978 से 20 मई तक कर्फ्यू लगा रहा। 

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