जान बचाने की खातिर रोजे में खून देना या चढ़वाना जायज
देवबंद में इबादत के खास माह रमजान में जरूरी है कि रोजेदार रोजे की मकरूहात से परहेज करे। रोजे के मकरूह का मतलब है कि इससे सवाब कम हो जाता है। उलेमा के मुताबिक जान बचाने की खातिर रोजे में खून देना या चढ़वाना भी जायज है।

सहारनपुर, जेएनएन। देवबंद में इबादत के खास माह रमजान में जरूरी है कि रोजेदार रोजे की मकरूहात से परहेज करे। रोजे के मकरूह का मतलब है कि इससे सवाब कम हो जाता है। उलेमा के मुताबिक जान बचाने की खातिर रोजे में खून देना या चढ़वाना भी जायज है।
जामिया इमाम मोहम्मद अनवर शाह के मोहतमिम मौलाना अहमद खिजर शाह मसूदी ने रमजान के रोजे की मकरूहात पर रोशनी डालते हुए इस्लामिक कानून पर आधारित पुस्तक फतावा-ए-आलमगीरी का हवाला देते हुए बताया कि रोजे के दौरान किसी चीज को मुंह में रखकर चबाने या चखकर थूक देने या फिर अपने मुंह में इरादतन थूक जमा करके निगलने से रोजे में कराहत आ जाती है। इसके अलावा बिना किसी बड़ी जरूरत के जिस्म से खून निकलवाना या खून देना भी कराहत है। रोजे की हालत में यदि किसी ने बिना किसी जरूरत के खून निकलवाया या खून चढ़वाया है तो कराहत के साथ रोजा तो हो जाएगा लेकिन अल्लाह के आदेशों की अवहेलना का गुनाह लगेगा। यदि किसी की जान खतरे में हो और खून दिए बिना जान बचना मुश्किल हो रहा हो तो ऐसी हालात में खून देना या चढ़वाना जायज है। रोजों में पत्नी के होंठ चूमना भी मकरूह है। फतावा-ए-शामी पुस्तक का हवाला देते हुए मौलाना ने बताया कि रोजेदार का देर तक गुस्ल (नहाना) करना भी सही नहीं है। यदि रात में गुस्ल की जरूरत पड़ भी जाए तो उसे सुबह होने से पहले ही गुस्ल करना चाहिए। इसी तरह सेहरी के बाद गुस्ल की जरूरत पेश आ जाए तो उसमें देरी नहीं करनी चाहिए।
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