रोजे और दीगर इबादतों के लिए नीयत का होना जरूरी
सहारनपुर जेएनएन। माह-ए-रमजान के रोजों की मजहबे इस्लाम में खास अहमियत है। उलेमा के मुताबिक

सहारनपुर, जेएनएन। माह-ए-रमजान के रोजों की मजहबे इस्लाम में खास अहमियत है। उलेमा के मुताबिक हर इबादत के लिए नीयत का होना जरूरी है। रोजे रखने के लिए भी नीयत का होना अहम शर्त है। अगर कोई व्यक्ति बिना नीयत के पूरा दिन बिना कुछ खाए पिये गुजार दे तो वह रोजा नहीं कहलाएगा।
दारुल उलूम वक्फ के वरिष्ठ उस्ताद मौलाना नसीम अख्तर शाह कैसर ने रोजे की नीयत पर रोशनी डालते हुए मिशकात शरीफ (इस्लामी पुस्तक) की पहली हदीस का हवाला देते हुए बताया कि हर काम नीयत पर आधारित होता है। इसलिए पवित्र माह रमजान के रोजे रखने के लिए भी नीयत का होना बेहद जरूरी है। अलबत्ता नीयत के अलफाज जबान से कहना जरूरी नहीं है। बल्कि सेहरी में उठना और सेहरी खाना भी नीयत में शुमार है। अगर जबान से नीयत का इजहार कर लिया जाए तो बेहतर है। रमजान के महीने में प्रत्येक रोजे में नीयत करना जरूरी है। एक दिन नीयत कर लेना सभी रोजों के लिए काफी नहीं है। मौलाना ने कहा कि रमजानुल मुबारक के रोजे में इतनी नीयत कर लेना काफी है कि आज मेरा रोजा है। या रात को सोच ले कि कल मेरा रोजा है। केवल इतनी नीयत से भी रमजान का रोजा हो जाएगा।
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सहरी खाना है मसनून
मौलाना नसीम ने बताया कि रोजा रखने के लिए सेहरी खाना (रात के आखिरी हिस्से में कुछ खा पी लेना) मसनून (जो चीज अल्लाह के रसूल ने पसंद की हो) है। उन्होंने एक हदीस का हवाला दिया और बताया कि पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने फरमाया कि अल्लाह और उसके फरिश्ते सेहरी खाने वालों पर रहमत नाजिल फरमाते है। अगर खाने की भूख न हो तो भी इस सुन्नत पर अमल करने के लिए एक दो छुआरे या सिर्फ पानी का एक घूंट पी लेना काफी है।
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