MahaKumbh: प्रयागराज के इन पंडों के पास है आपकी 7 पीढ़ियों का 'लेखाजोखा', विदेश में बसे भारतीयों की भी है पूरी कुंडली
महाकुंभ के संगम तट पर श्रद्धालुओं के मार्गदर्शक तीर्थ पुरोहित पीढ़ियों की वंशावली और परंपरा का खजाना समेटे हैं। सात पीढ़ियों तक का विवरण उनकी बहियों में सुरक्षित है। शास्त्रों के अनुसार महर्षि भरद्वाज को प्रथम पुरोहित माना जाता है। ध्वज पताका प्रतीक चिह्न और सांकेतिक भाषा के जरिए ये पुरोहित अपनी पहचान बनाए रखते हैं। उनका ऐतिहासिक और आध्यात्मिक योगदान आधुनिक साधनों को चुनौती देता है।

जागरण संवाददाता, महाकुंभ नगर। ये प्रयागराज के पंडे हैं और श्रद्धालु के तीर्थ पुरोहित। महाकुंभ में श्रद्धालुओं का ये बड़ा सहारा हैं। घर व अपने शिविर में अपने जजमानों को टिकाने से लेकर स्नान कराने तक का दायित्व ये निभाते हैं। अगर आपसे कोई पूछे कि अपने पूर्वजों का नाम बताइये तो ज्यादा से ज्यादा बाबा और परबाबा तक ही बता सकते हैं।
ऐसा स्वाभाविक है क्योंकि दैनिक जीवन, काम की व्यस्तता और किसी तरह का कोई काम न पड़ने के चलते लोग पूर्वजों का स्मरण कर ही नहीं पाते हैं। मगर पंडों के पास आपकी सात पीढ़ियों की ही नहीं बल्कि उनसे भी पहले की वंशावली मिल जाएगी। राजा-महाराजा और उनकी वंशावली तक वे बता सकते हैं।
प्रयाग में ब्रह्मा जी के द्वारा हुए प्रथम यज्ञ और उसमें महर्षि भरद्वाज के पुरोहित होने का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। इस नाते महर्षि भरद्वाज को सबसे पहला पुरोहित माना जाता है। वर्तमान में प्रयागराज में इनकी संख्या 1500 के आसपास है जिनके पास पीढ़ियों और वंशावलियों का दुर्लभ संग्रह है।
संगम क्षेत्र में बही देखते तीर्थ पुरोहित उमेश शर्मा।-जागरण
विदेश में रहने वाले भारतीयों के पूर्वजों का लेखाजोखा भी
संगम तट पर सैकड़ों साल से यजमानों को पूजा अर्चना कराने वाले तीर्थ पुरोहितों के पास भारत ही नहीं दुनिया के अन्य देशों में रहने वाले भारतीयों के पूर्वजों का लेखाजोखा है। सम्राट अकबर ने तत्कालीन तीर्थ पुरोहित चंद्रभान और किशनराम को माघ मेला के लिए 250 बीघा भूमि मुफ्त में दी थी यह आदेश भी तीर्थ पुरोहितों के पास सुरक्षित है।
संगम क्षेत्र में दो सौ साल पुरानी बही दिखाते तीर्थ पुरोहित संतोष भारद्वाजी।-जागरण
मांगने पर आपको यह भी मिल जाएगा कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई प्रयाग कब आईं थीं। गया जी में पितरों का श्राद्ध करने के लिए आपके पुरखों में कभी कोई गया होगा यह अभिलेख भी मिल सकता है।
व्यवस्था कुछ ऐसी है कि अत्याधुनिक और बेहद तकनीकी युग में जबकि कंप्यूटर व इंटरनेट सबकुछ पलक झपकते बता दे रहा है, ऐसे में इन तीर्थ पुरोहितों की बहियां कंप्यूटर को पछाड़ रही हैं। यानी सूचना क्रांति के विस्फोटक दौर में पंडा समाज के पास सैकड़ों साल पुरानी जानकारियों, पीढ़ियों और वंशावलियों का बड़ा खजाना है।
संगम क्षेत्र में तीर्थपुरोहितों के बही में लिखा लेखा जोखा।-जागरण
ध्वज पताका है पहचान
बात सबसे पहले पहचान की। तीर्थ पुराेहित और प्रयागराज धर्म संघ के अध्यक्ष राजेंद्र पालीवाल कहते हैं कि ध्वज पताका यानी झंडा निशान पूर्वजों की देन है। प्राचीन काल में यह व्यवस्था इसलिए बनाई गई थी जिससे कि विभिन्न जिलों या राज्यों से आने वाले लोग उसी पहचान को बताकर अपने कुल से संबंधित तीर्थ पुरोहित के तख्त पर आसानी से पहुंच सकें।
इनके झंडों के अपने-अपने प्रतीक चिह्न होते हैं। हाथी वाले पंडा, ऊंट वाले पंडा, घोड़े वाले पंडा, कड़ाही वाले पंडा, मछली वाले पंडा, इसी तरह से पांच सिपाही, शंख वाले पंडा, डंडे वाले पंडा, घंटी वाले पंडा, महल, चांदी का नारियल, सोने का नारियल, जटादार नारियल, पीतल पंजा, त्रिशूूूल, खांची यानी बांस की डलिया, घड़ा, दो बोतल, पान वाले पंडा, जटा वाले पंडा, सूरज निशान, पतंग वाले पंडा समेत दर्जनों अन्य पहचान है इनकी।
प्रतीक चिह्नों के लिए यह शब्द इसलिए निर्धारित किए गए थे जिससे कि बाहर के ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले लोग इन्हें याद रख सकें और अपने कुल पुरोहित के पास पहुंच जाएं। तीर्थ पुरोहितों यानी पंडाें की यही पहचान सदियों से है जिसे आज तक यथावत रखा गया है।
वंशावली सुरक्षित रखने का है वैज्ञानिक तरीका
तीर्थ पुरोहितों के बहीखाता संसार में यजमानों का वंशवार विवरण वर्णमाला के व्यवस्थित क्रम में सुरक्षित रहता है। शुरुआती समय तीर्थ पुरोहित वंशावली लिखने का काम मोर पंख से करते थे। समय बदला और नरकट (सरकंडा) का उपयोग होने लगा। इसके बाद निब वाली यानी फाउंटेन पेन से लिखने लगे।
स्याही वाली पेन का उपयोग हाल में कुछ वर्षों पहले तक हुआ। इसके पीछे तीर्थ पुरोहितों का तर्क है कि स्याही और कागज का तालमेल ऐसा बैठता है कि लिखावट दशकों तक खराब नहीं होती। इन बहीखातों को संजो कर रखने के संबंध में काफी रोचक तथ्य है।
कुछ इस तरह से समझिये कि बहीखाते के सबसे पहले पृष्ठ पर ऐसी सूची होती है जिसमें कर्मकांड कराने के लिए आने वाले लोगों का ''अ'' से लेकर ''ज्ञ'' तक नाम के अनुसार पहला अक्षर लिखा जाता है। उदाहरण के साथ समझें तो मध्य प्रदेश के विदिशा से कोई यमजान आया। हो सकता है इसमें 1200 या 1500 गांव हों। कौन यजमान किस गांव का है उसके लोग संगम तट पर कब-कब आए इसे लिखने का व्यवस्थित क्रम है।
ऐसे बनती है सूची
- ''अ'' से लेकर ''ए'' नाम से पड़ने वाले गांव का नाम एक नंबर बही में लिखा जाएगा।
- ''क''और ''ख'' अक्षर से जिस गांव के नाम हैं उन्हें दो नंबर बही में लिखा जाता है।
- इसी तरह से ''ज,'' ''छ'' ''ज'' ''झ'' के पहले अक्षर वाले गांव के नाम तीन नंबर बही में, ''ट'' ''ठ'' ''ढ'' ''न'' के शुरुआती अक्षर वाले गांव के नाम चार नंबर बही में लिखा जाएगा।
- इसी तरह से अक्षरवार सूची क्रम आगे बढ़ता है।
- अब मान लीजिए कि विदिशा के किसी गांव का नाम ''ज'' अक्षर से है तो तीन नंबर बही खोली जाएगी।
- किसी गांव का नाम ''ठ'' अक्षर से है तो तुरंत चार नंबर बही खोली जाएगी। इसमें देखा जाएगा कि ठ अक्षर के गांव कौन-कौन से हैं। उसका पृष्ठ नंबर पढ़कर यजमान से संबंधित गांव या मजरे को खोज लिया जाता है।
प्रभावशाली रहे हैं प्रयागराज के पंडे
क्षेत्रीय प्रयागवाल समाज के पूर्व अध्यक्ष राजीव भरद्वाज ''बब्बन'' बताते हैं कि देवताओं से प्रदत्त सबसे पहले तीर्थ पुरोहित महर्षि भरद्वाज हैं। उनका तब विश्वविद्यालय संचालित होता था यहीं भरद्वाज मुनि चौराहे पर। उस विश्वविद्यालय में 10 हजार शिष्य थे जो खगोल और विमान शास्त्र की पढ़ाई करते थे।
कहा कि तीर्थराज प्रयाग में तीर्थ पुरोहितों का इतिहास तब से ही माना जाता है। उनका सूरज निशान था, इसके बाद गाय, बछिया, अश्व यानी घोड़ा, हाथी आदि निशान होते गए। प्रयागराज में 1484 तीर्थ पुरोहितों के निशान का वर्णन है, इनमें करीब 1000 निशान लुप्त हो गए।
यहां के शुरुआती तीर्थ पुरोहितों ने आसपास के जिलों से तीर्थ पुरोहितों को आमंत्रित कर बसाया। तीर्थ पुरोहितों के सरदार भी हुआ करते थे। सत्ती चौरा मोहल्ले में रहने वाले पं. बसंत लाल शर्मा और उनके निशान धनुष बाण की चर्चा करते हुए कहा कि वह पं. जवाहर नेहरू के अंग्रेजी प्रेम से चिढ़ते थे।
उनके प्रभाव के आगे पं. नेहरू भी दबाव में आए गए थे। इसके बाद पं. बसंत लाल शर्मा को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में मेयर बनाया गया था। ऐसे लोगों को स्वतंत्र भारत में सरदार की उपाधि मिली थी। तब से तीर्थ पुरोहितों में सरदारी प्रथा चली हालांकि यह 90 के दशक के आसपास समाप्त हो गई।
बब्बन के अनुसार स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पन्नों में यह भी उल्लेख है कि 1857 में जब अंग्रेजों का विरोध शुरू हुआ था और मौलवी लियाकत अली ने इलाहाबाद के खुसरो बाग को मुख्यालय बनाकर मोर्चा संभाला था तब प्रयागवाल समाज के पंडों ने उस क्रांति में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।
सहयोगियों से बनता है महाजाल
पंडों का यजमानों तक पहुंचने के लिए महाजाल सहयाेगियों से बनता है जिन्हें साधारण शब्दों में सहायक या परिकर कहते हैं। इन्हें पंडों की भाषा में गुमास्ता भी कहते हैं। ट्रेन या बसों से जो भी यजमान प्रयागराज आते हैं उनसे वहीं पर सहयोगी संपर्क करते हैं।
ट्रेन और बसों में पंडों के अपने-अपने पंडा और चिन्हों का नाम बोलते रहते हैं। उनसे संबंधित यजमान उनके ही पास आ जाते हैं। फिर वही सहयोगी, यजमानों को आदर भाव के साथ लिवाकर संबंधित कुल पुरोहित के पास ले जाते हैं।
वहां से जिम्मेदारी दूसरे सहयोगी की हो जाती है। यह सहयोगी, यजमान को लेकर घाट पर जाते हैं। इनके अपने-अपने केवट, नाई, आचार्य, महापात्र होते हैं। कोई एक दूसरे के क्षेत्र में डाका नहीं डालता। यजमान को सहयोगी के रहते कहीं कोई परेशानी नहीं हो सकती।
यजमान का पूरा सम्मान बनाए रहने के लिए सहयाेगी जी जान लगा देते हैं। इसके बाद उन्हें लेकर वापस तख्ते पर आते हैं वहां कर्मकांड, पिंडदान आदि कराए जाते हैं। यह बड़ी बात है कि इन सहयोगियों से कभी किसी को कोई शिकायत नहीं हुई।
सांकेतिक भाषा में होती है बात
मालवीय नगर के रहने वाले तीर्थ पुरोहित मयंक दुबे कहते हैं कि उनकी ऐसी सांकेतिक भाषा होती है जिसे किसी अन्य के लिए समझ पाना बेहद कठिन है। यजमान कितना खर्च कर सकता है, किस पुरोहित से उसका संबंध है, व्यवहार अच्छा है या खराब, झगड़ालू है या विनम्र, आर्थिक स्थिति मजबूत है या कमजोर आदि, आदि।
इन सांकेतिक भाषा में बात करते हुए तीर्थ पुरोहित अपने काम को आसान कर लेते हैं। आमतौर पर इसी भाषा का उपयोग लगभग सभी घाटों पर होता है जबकि यजमान से तीर्थ पुरोहित सामान्य भाषा में बात करते हैं।
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