अखाड़ों का संसार: 'भिक्षु' और 'हुड़दंगा' तप कर बनते हैं निर्वाणी अनी अखाड़ा के संत, 500 साल पुराना इतिहास, जानें कहानी
कुंभ मेले में आइए और श्री निर्वाणी अनी अखाड़े के संतों के त्याग और तपस्या की साक्षी बनिए। जानिए कैसे 12 साल की कठिन तपस्या के बाद व्यक्ति संन्यासी बनत ...और पढ़ें

जागरण संवाददाता, महाकुंभनगर। जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला। अर्थात जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएं हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है। श्रीरामचरित मानस में तुलसी बाबा ने इस विसंगति का उल्लेख किया है। यह परिस्थितियां सांसारिक लोगों को भ्रम में डालने वाली है। वास्तविकता जानना हो तो त्रिवेणी तट पर लगने वाले सनातनी वैभव के मेले में जरूर आएं।
यहां देशभर से आने वाले अखाड़ों में संत परंपरा के दर्शन होंगे। संत समाज के त्याग और तपस्या का भान होगा। श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां एक-दो नहीं, बल्कि 12 वर्षों की कठिन तपस्या के बाद व्यक्ति श्वेत अथवा केसरिया वस्त्रधारी संत बनता है। अखाड़े में भिक्षु (नए सदस्य को जोड़ने का नाम) बनकर जुड़ना पड़ता है। एक वर्ष में टहलू बनते हैं। फिर तीन वर्ष की सेवा के बाद मुरेटिया की पदवी मिलती है।
पांच साल के बाद हुड़दंगा बनाया जाता है
पांच वर्ष के बाद हुड़दंगा (जो बिना बंधन के घूमकर धर्म प्रचार व सेवा करे) बनाया जाता है। सेवा के साथ धर्म ग्रंथों का अध्ययन करना पड़ता है। इसमें तप कर खरा उतरने पर संन्यासी बनाते हैं। प्रतिवर्ष संन्यास के लिए चार से पांच सौ लोग जुड़ते हैं। इसमें से 15-20 ही मानक पर खरा उतरने के बाद संन्यासी बनते हैं।
श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा की स्थापना 1476 ईस्वी में स्वामी बालानंदाचार्य ने की। अनी का अर्थ 'समूह' है। ये वैष्णव सम्प्रदाय के संत हैं, जो प्रभु श्रीराम व श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहते हैं। अखाड़े का प्रमुख मठ अयोध्या के हनुमान गढ़ी में है। हनुमानगढ़ी के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर पर इसी अखाड़े का अधिकार है। इनके संतों को हरिद्वारी, वसंतिया, उज्जैनिया और सागरिया भागों में बांटा गया है।
.jpg)
श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या में बने मंदिर की रक्षा में निर्वाणी अनी अखाड़ा के संतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आक्रांताओं से कई बार युद्ध लड़ा। 1825 ईस्वी में संस्कृत भाषा में अखाड़े का संविधान लिखा गया। साल 1963 में उसका हिंदी अनुवाद कराया गया।
नागा बनकर संभालते हैं जिम्मेदारी
संन्यासी बनने वालों को सर्वप्रथम नागा बनाकर अखाड़े के अंदर की जिम्मेदारी दी जाती है। इसके बाद पुजारी का जिम्मा मिलता है। इसमें सफल होने पर महंत और श्रीमहंत बनाए जाते हैं। इसके बाद महामंडलेश्वर व जगदगुरु बनते हैं। अयोध्या के हनुमानगढ़ी में प्रत्येक 12 वर्ष के बाद नागापना समारोह में भिक्षु, मुरेटिया व हुड़दंगा की परीक्षा में सफल लोगों को साधुओं की दीक्षा दी जाती है।
संतों के बीच विवाद होने पर हनुमानगढ़ी में लोकतांत्रिक परंपरा के तरह उसका निपटारा किया जाता है। इसमें अखाड़े के श्रीमहंत की अहम भूमिका होती है। श्रीमहंत की गद्दी भी वंशानुगत नहीं होती, बल्कि हर 12 वर्ष बाद महाकुंभ के अवसर पर लोकतांत्रिक तरीके से नए श्रीमहंत को चुना जाता है।
अखाड़ा की हैं सात शाखाएं
अखाड़ा की देशभर में सात शाखाएं हैं। हर शाखा में 15 से 20 हजार संत हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों में सनातन धर्म के प्रचार में लीन हैं। शाखाओं के संचालन का जिम्मा प्रमुख महंत संभालते हैं। निर्वाणी अनी अखाड़ा के पंच परमेश्वर शाखाओं के प्रमुख महंत का चयन करते हैं।
.jpg)
- अखिल भारतीय श्रीपंच रामानंदी निर्वाणी अखाड़ा
- अखिल भारतीय श्रीपंच रामानंदी खाखी अखाड़ा
- अखिल भारतीय श्रीपंच हरव्यासी निर्वाणी अखाड़ा
- अखिल भारतीय श्रीपंच हरव्यासी खाखी अखाड़ा
- अखिल भारतीय श्रीपंच निरालम्बी अखाड़ा
- अखिल भारतीय श्रीपंच बलभद्री अखाड़ा
- अखिल भारतीय श्रीपंच टाटम्बरी अखाड़ा
यह है खास
- इष्टदेव- हनुमान जी
- धर्मध्वजा- लाल रंग, उसमें हनुमान जी का चित्र रहता है
- मुहिम- मठ-मंदिरों की सुरक्षा, वैदिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार
- धर्मध्वजा पूजन- 28 दिसंबर
- छावनी प्रवेश- आठ जनवरी
श्री निर्वाणी अनी के अध्यक्ष श्रीमहंत मुरली दास ने बताया कि वैष्णव सम्प्रदाय के संतों ने मठ-मंदिरों की रक्षा के लिए आक्रांताओं व अंग्रेजों से कई बार युद्ध किया है। संतों ने अपनी वीरता से शत्रुओं को परास्त किया। इसमें हजारों संतों ने प्राणों की आहुति दी। धर्म की रक्षा के लिए हमारा अखाड़ा आज भी समर्पित भाव से योगदान दे रहा है।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।