Allahabad High Court ने कहा- मृत लोगों को अभियोजन गवाह बनाने का अर्थ जांच अविश्वसनीय
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि मृत व्यक्तियों को अभियोजन गवाह बनाना जांच को अविश्वसनीय बनाता है। बिना सबूत चार्जशीट दाखिल करना न्यायिक प्रक्रिया ...और पढ़ें

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि मृतकों को अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में नामित करने से जांच अविश्वसनीय हो जाती है।
विधि संवाददाता, जागरण, प्रयागराज। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि मृत व्यक्तियों का नाम अभियोजन गवाह के रूप में शामिल किया जाना इस बात का परिचायक है कि जांच अविश्वसनीय और कानूनी रूप से अस्थिर है। बिना साक्ष्य चार्जशीट दाखिल करना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। जांच में पारदर्शिता और निष्पक्षता बहुत महत्वपूर्ण है। इस टिप्पणी के साथ न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव ने गौतमबुद्ध नगर निवासी मालू की आपराधिक अपील स्वीकार कर आपराधिक केस कार्यवाही को रद कर दिया है।
मुकदमे से जुड़े तथ्य यह हैं कि गौतमबुद्ध नगर के दादरी थाने में 2022 में एफआइआर दर्ज की गई थी। इसमें आरोप लगाया गया कि गांव चिताहेरा, तहसील दादरी की कृषि भूमि के आवंटन और बाद में उसके हस्तांतरण में अनियमितता की गई। शिकायतकर्ता के अनुसार 1997 में 282 आवंटियों को पट्टे दिए गए थे, इनमें कुछ अयोग्य थे और उन्होंने जमीनों के लिए तीसरे पक्ष के साथ अवैध रूप से बिक्री दस्तावेज निष्पादित कर लिया।
अनुसूचित जाति समुदाय के लिए आरक्षित कुछ भूमि को अवैध रूप से हस्तांतरित किया गया। एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के साथ ही आइपीसी की विभिन्न धाराओं में केस दर्ज किया गया। कोर्ट ने पाया कि आरोप पहले से ही कई न्यायिक कार्यवाही में खारिज किए जा चुके थे और राजस्व अदालतों द्वारा उन्हें बरकरार रखा गया था।
कोर्ट ने कहा, अधिकांश गवाहों ने अपीलार्थी के खिलाफ कोई आरोप नहीं लगाया है। कई गवाहों ने कहा है कि वे अपीलार्थी को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते। विवाद सिविल प्रकृति का है, न कि आपराधिक। कोर्ट ने यह भी पाया कि आरोपपत्र में नामित कुछ गवाह जांच शुरू होने से पहले ही मर चुके थे।
सुप्रीमकोर्ट के आनंद कुमार मोहता बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) मामले का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा जब एक बार भूमि के स्वामित्व और विवादों का निपटारा नागरिक और राजस्व कार्यवाही में हो गया है तो आपराधिक कार्यवाही जारी रखना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। सिर्फ इसलिए कि शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति से है, एससी/एसटी अधिनियम के तहत कोई अपराध नहीं बनता। अभियोजन को यह दिखाना होगा कि पीड़ित के दलित होने के कारण यह कृत्य किया गया।
विशेष न्यायाधीश (एससी/एसटी एक्ट) ने 20 मार्च 2023 को समन आदेश पारित किया था। आरोप पत्र फरवरी 2023 को दायर किया गया था। कोर्ट के लिए यह बात अचरज वाली थी कि अपीलार्थी का नाम न एफआइआर में था और न ही आरोपपत्र में। अभियोजन यह नहीं बता सका कि जांच के दौरान कैसे, कब और किस आधार पर नाम सामने आया? कोर्ट ने कहा, अपीलार्थी की भूमिका दर्शाने वाला कोई भी दस्तावेज, लघुकरण, बरामदगी या गवाह का बयान नहीं है।
महत्वपूर्ण पहलू यह है कि 1997 में किए गए पट्टे के आवंटन में अनियमितताओं के आरोप में एफआइआर तीन जुलाई 2022 को दर्ज की गई, लगभग 24-25 वर्षों की देरी के साथ। अगर पट्टे/बिक्री पत्र अवैध या धोखाधड़ी से प्राप्त किए गए थे तो राज्य सरकार व पीड़ित के लिए उपलब्ध वैध मार्ग यह था कि वे सक्षम राजस्व या नागरिक मंच के समक्ष रद्दीकरण के लिए कार्रवाई करें, लेकिन ऐसी कोई सामग्री रिकॉर्ड पर नहीं है।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।