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    हरि होंठ लगी तो प्राण मिले, बांसुरी की सुरीली धुन मोह लेती थी मन

    By Prateek KumarEdited By:
    Updated: Tue, 28 Jun 2022 04:41 PM (IST)

    बांसुरी की सुर यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया पद्मविभूषण पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी के आने पर। भारतीय बांसुरी के सुरों को पूरे विश्व में गुंजायमान करने वाले पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी ने बांसुरी का शास्त्रीय उपशास्त्रीय लोक तथा सुगम संगीत में जिस प्रकार से प्रयोग करना प्रारंभ कियाअभूतपूर्व था।

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    पंडित हरिप्रसाद चौरसिया अपने अतिप्रिय वाद्य बांसुरी के साथ। फाइल फोटो

    ग्रेटर नोएडा [पंडित चेतन जोशी]। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में बांसुरी एक प्रमुख वाद्य है। बांसुरी की सुरीली धुन में सहज ही किसी को भी आकर्षित कर लेने की विशेषता है। बांसुरी की सुर यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया पद्मविभूषण पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी के आने पर। भारतीय बांसुरी के सुरों को पूरे विश्व में गुंजायमान करने वाले पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी ने बांसुरी का शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा सुगम संगीत में जिस प्रकार से प्रयोग करना प्रारंभ किया, वह अभूतपूर्व था। उनकी बांसुरी की मिठास हर कला विधा में अलग ही रस उत्पत्ति करती है जो न केवल श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती है अपितु विद्वानों को भी आकर्षित करती है।

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    वैदिक वांग्मय में बांसुरी के साधकों में स्वयं देवराज इन्द्र थे। पौराणिक काल में भगवान श्रीकृष्ण को इस अकिंचन वाद्य को हर घर तक पहुँचाने का श्रेय दिया जाता है। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र, अभिनव दर्पण तथा ऐसे ही अनेक प्रमुख ग्रंथों में बांसुरी की विशद चर्चा मिलती है। प्राचीन काल में यज्ञों के आयोजन के साथ संगीत प्रदर्शन की प्रथा थी। इनमें कुतप वादन अर्थात विभिन्न वाद्यों के सामूहिक वादन की प्रथा थी। इसमें सभी वाद्ययंत्रों को बांसुरी के स्वरों से मिलाया जाता था।

    बांसुरी का प्रयोग एकल वादन तथा संगति, दोनों के लिए होता आया है। एकल वाद्य के रूप में बांसुरी पर विभिन्न रागों में शास्त्रीय संगीत (ध्रुपद, खयाल इत्यादि), उपशास्त्रीय संगीत (ठुमरी, दादरा, चैती, होली इत्यादि) तथा सुगम संगीत (लोक गीत की धुनें, भजन, गीत इत्यादि) बजाए जाते हैं। संगति के वाद्ययंत्र के तौर पर बांसुरी का प्रयोग गीतों के बीच के अंतराल भरने में किया जाता है। उदाहरण के लिए लोक गीत की शुरुआत करने से पहले बांसुरी द्वारा उस गीत के स्वरों पर आधारित आलाप लेकर गायक के लिए वातावरण बनाया जाता है. तथा गीत के विभिन्न अंतरों के बीच विविधता तथा सौंदर्य बढ़ाने के लिए बांसुरी का प्रयोग होता है। इसी प्रकार का प्रयोग भजन, गजल, कव्वाली, फिल्मी गीतों इत्यादि के साथ संगति के लिए भी किया जाता है।

    बांसुरी एक ऐसा वाद्य है जिसे सुनना जितना सहज है, बजाना उतना ही कठिन। बांसुरी के केवल छ: छिद्रों में संगीत का पूरा संसार समाया हुआ है। बांस के निर्जीव टुकड़े से सप्त स्वरों, बाईस श्रुतियों का निकलना अपने आप में अद्भुत है। कलाकार अपने प्राण फूंक से जीवंतता प्रदान करते हैं। उसकी उंगलियां विभिन्न छिद्रों को खोलती-बंद करती हुई रागों की स्वप्न सृष्टि करती है। फेफड़ों से लेकर होंठों तक का श्वसनतंत्र हो या कंधों से लेकर उँगली के पोरों तक का नर्तन, जब सब बांसुरी पर केंद्रित होता है तब सृजनशीलता जागती है और कुछ कलात्मक उपजता है।

    बांसुरी को इसलिए खास वाद्य कहा जाता है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के बाद किसी प्रसिद्ध बांसुरी वादक का नाम इतिहास में नहीं मिलता। उनके बाद हम सीधे आ जाते हैं बांसुरी के युगपरिवर्तनकारी साधक पंडित पन्नालाल घोष जी के काल में। पंडित पन्नालाल घोष जी ने बांसुरी की शास्त्रीय संगीत जगत में पुनर्स्थापना की। उन्होंने बांसुरी की लंबाई बढ़ाने तथा स्वर स्थापना, फूंक, उंगलियों के रखरखाव यानी हर क्षेत्र में सफल प्रयोग किये, जो वर्तमान में लगभग सभी कलाकारों ने अपना लिया है। पंडित घोष के बाद अनेकों महान कलाकार इस क्षेत्र में आए जिनमें पंडित रघुनाथ सेठ, पंडित भोलानाथ प्रसन्ना, पंडित विजय राघवराव, पंडित देवेंद्र मुर्देश्वर, उस्ताद फहीमुल्ला इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं।