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    पीतल नगरी मुरादाबाद का दस्तकारी उद्योग संकट में, बढ़ती महंगाई ने मुश्किल में डाला, कारीगर छोड़ रहे पेशा

    Updated: Mon, 17 Nov 2025 02:42 PM (IST)

    मुरादाबाद के पीतल उद्योग को 2025 में अमेरिकी 50% टैरिफ से भयंकर संकट का सामना करना पड़ रहा है।निर्यात रुका, ऑर्डर कैंसिल हुए, और लाखों कारीगर बेरोजगार हुए हैं। उद्योग की चमक फीकी पड़ रही है, सरकार से राहत की मांग बढ़ रही है।यह संकट मुरादाबाद के कलाकारों के आजीविका और शहर की पहचान दोनों को प्रभावित कर रहा है। उद्योग को बचाने के लिए तत्काल आर्थिक एवं नीतिगत मदद आवश्यक है।

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    प्रतीकात्‍मक च‍ित्र

    जागरण संवाददाता, मुरादाबाद। पीतल को तराशने का हुनर... पतली बारीक नोक और लकड़ी की हथौड़ी से ठक-ठक कर नक्काशी के माध्यम से उसे तराशा जाता है। मुरादाबाद पीतल उद्योग की पहचान उसके हुनरमंद दस्तकारों से है, लेकिन आज वही कारीगर बेहतर मजदूरी की तलाश में शहर से बाहर जा रहे हैं। बढ़ती महंगाई, कच्चे माल की कीमतों में उछाल और मजदूरी के बेहद कम स्तर ने कारीगरों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा कर दिया है।

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    स्थिति यह है कि परंपरागत कारीगरों का यह शहर उनका भविष्य सुरक्षित नहीं दिखा रहा। परिवार के खर्च को देखते हुए मुरादाबाद से बड़ी संख्या में पिछले आठ साल में छिलाई, ढलाई और पालिश कारीगरों ने नेपाल में काम शुरू किया है। वहां उन्हें प्रतिदिन तीन हजार रुपये तक की मजदूरी हो जाती है। खर्च निकालने के बाद 35-40 हजार रुपये वह अपने घरों को भी भेज देते हैं।

    शहर में करीब 80 हजार दस्तकार हैं लोम्बार्ड योजना के कार्ड बनाते समय चयनित किये गए थे। पीतल की सिल्ली महंगी पड़ने और बट्टा कम न होने कारण वे पहले जैसी आमदनी नहीं हो पा रही है। पीतल से जड़ें उत्पाद बनाने में सबसे महत्वपूर्ण माना जाने वाला छिलाई कार्य कारीगरों के सामने काम का संकट हो गया है।

    केपिटल रोड के अनुभवी छिलाई कारीगर समीर आलम बताते हैं कि दिनभर काम करने के बाद 600 से 800 रुपये ही कमा पाते है, वह भी तब जब वह सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक लगातार काम किया जाए। छिलाई में सिंदूरदानी की मय ढक्कन छिलाई सिर्फ डेढ़ रुपये में पड़ती है। एक दिन में सैकड़ों पीस तैयार करने के बाद भी घर का खर्च निकालना मुश्किल हो जाता है।

    वहीं कटघर धोबी वाला फाटक के रहने वाले छिलाई कारीगर नूर हसन बताते हैं कि जहां पांच-छह लोगों का परिवार हो, वहां यह कमाई बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं है। अगर घर में कोई बीमार पड़ जाए तो कर्ज लिए बिना इलाज कराना संभव नहीं रह जाता। छिलाई कारीगर इरफान बताते हैं, काम ठीक है, लेकिन कमाई इतनी कम है कि खर्च पूरे नहीं हो पाते। बच्चों की पढ़ाई, दवा और रोजमर्रा का खर्च चलाना मुश्किल है। नए लड़के इस पेशे में आना ही नहीं चाहते। उन्हें यहां भविष्य नजर नहीं आता।

    करूला मोती मस्जिद के पास रहने वाले पालिश कारीगर मो. अफजाल की स्थिति भी ऐसी ही है। वे कहते हैं, मजदूरी सालों से बढ़ी नहीं। महंगाई दोगुनी-तिगुनी हो गई है। हमारे पास रोज काम तो है, लेकिन आय इतनी कम कि परिवार पर बोझ बढ़ता जा रहा है। बच्चों की शादी भी करनी है। घर के रोजाना के खर्च भी हैं।

    कारखानेदारों के सामने भी मजबूरी, देनी पड़ती है बाकी

    कारखानेदार भी अपनी मजबूरियां गिनाते हैं। पीतल कारोबारी राजा बताते हैं, पीतल की सिल्ली का दाम काफी ऊपर चला गया है। बट्टा भी बहुत ज्यादा है। ऐसे में मजदूरी बढ़ाना संभव नहीं है। यही वजह है कि जिन यूनिटों में दस साल पहले 20–25 कारीगर काम करते थे, वहां आज मुश्किल से चार-पांच कारीगर बचे हैं।

    कारखानेदार अजीम हते हैं, लोग कमाई की तलाश में बाहर जा रहे हैं। कारीगर की कमी से उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। कारीगरों को रोकने के लिए एक-एक लाख रुपये की बाकी(एडवांस रुपया) देनी पड़ती है। तब कहीं कारीगर काम कर पाते हैं। नया कारखाना लगाना भी आसान नहीं रह गया है।

    बेहतर कमाई के लिए कारीगरों का पलायन

    कम मजदूरी और असुरक्षित भविष्य ने कारीगरों को अपने घर-परिवार से दूर कमाई के लिए नैपाल जाने को मजबूर कर दिया है। पिछले आठ से 10 वर्षों में करीब 1,000 कारीगर मुरादाबाद से निकलकर नेपाल और अन्य राज्यों में बस चुके हैं। वहां छिलाई, ढलाई और पॉलिश का काम करके उन्हें 35 से 40 हजार रुपये माह में वह अपने घरों को भेज देते हैं।

    लाल मस्जिद के मो. इमरान बताते हैं कि बाहर जाकर रहने और खाने का खर्च दुकानदार के जिम्मे रहता है। मानमानी मजदूरी लेने पर अपना खानपीना रहता है। चौकी हसन खां के अकरम बताते हैं, मुरादाबाद में जितना काम कर लो उतनी कमाई नहीं हो पाती। सप्ताह में जितना हिसाब निकलता है। वह घर के कामों में खर्च हो जाता है।

     

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