यूपी में हुए उलटफेरों ने राजनीतिक दलों को दिए भविष्य के संकेत.... किसी का बढ़ा कद तो किसी के अस्तित्व पर सवाल
UP Politics उत्तर प्रदेश की सियासत में इस साल कई बड़े उलटफेर देखने को मिले। लोकसभा चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा वहीं विधानसभा उपचुनाव में पार्टी ने जबरदस्त वापसी की। इस उथल-पुथल के पीछे का क्या संदेश है? साथ ही मायावती वरुण गांधी आजम खान अखिलेश यादव और स्मृति इरानी जैसे बड़े नेताओं को उत्तर प्रदेश से साल 2024 का क्या मैसेज है?

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश की सियासत (Uttar Pradesh Politics) में इस साल बड़े उलटफेर देखने को मिले हैं। जहां एक ओर लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को प्रदेश में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, वहीं दूसरी ओर 9 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में पार्टी ने जबरदस्त कमबैक किया। वहीं लोकसभा चुनाव में बढ़त के बाद प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी गदगद नजर आ रही है।
साल 2024 को खत्म होने में महज कुछ घंटे ही बाकि हैं, आज हम इस स्टोरी में इस साल यूपी की सियासत में हुए उथल-पुथल के बारे में बात करेंगे। जानने की कोशिश करेंगे कि अमेठी-अयोध्या लोकसभा सीट और कुंदरकी विधानसभा सीट पर हुए उलटफेर के पीछे का संदेश क्या है?
साल 2024 की शुरुआत में जहां एक ओर ठंड अपना जबरदस्त प्रकोप दिखा रही थी, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक तापमान लगातार गर्म होता जा रहा था। कई दशकों के इंतजार के बाद राम मंदिर बनकर तैयार हो चुका था। उसके बाद यह पहला लोकसभा चुनाव था। टिकट के लिए दावेदारों ने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक दौड़ लगाना शुरु कर दिया था। पार्टियों ने भी प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
राजनीति का अखाड़ा... उत्तर प्रदेश
राजनीति के लिहाज से उत्तर प्रदेश एक ऐसा अखाड़ा है, जहां सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों के दिग्गज नेता मैदान में होते हैं। लोकसभा चुनाव में लगातार दो बार के प्रधानमंत्री नेता नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) वाराणसी से मैदान में थे, तो कांग्रेस के राहुल गांधी रायबरेली सीट से प्रतिद्वंदी को चुनौती दे रहे थे।
वहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) कन्नौज से, उनकी पत्नी डिंपल यादव मैनपुरी से भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही थीं। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री व रक्षामंत्री राजनाथ सिंह सूबे की राजधानी लखनऊ से एक बार फिर मैदान में थे।
बहराल भाजपा ने एक बार फिर हिंदुत्व के मुद्दे को धार दी और राम मंदिर के निर्माण का खूब प्रचार-प्रसार किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) से लेकर राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath), अमित शाह समेत सभी भाजपा के बड़े नेताओं ने अपने भाषण में जनता के समक्ष इन्हीं मुद्दों को आगे बढ़ाया।
एनडीए बनाम इंडिया गठबंधन
वहीं भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए को चुनौती देने के लिए विपक्षी पार्टियों ने इंडिया गठबंधन बनाया। सूबे में इस गठबंधन की अगुवाई अखिलेश यादव कर रहे थे। समाजवादी पार्टी ने एनडीए को शिकस्त देने के लिए पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) के मोर्चे पर चुनाव लड़ा और यह कारगर साबित हुआ।
33 पर सिमटी भाजपा
4 जून को जब परिणाम सामने आए तो राजनीतिक टिप्पणीकार भी चौंक उठे। कारण था उत्तर प्रदेश में भाजपा सांसदों की संख्या 62 से घटकर महज 33 पर सिमट गई। साथ ही हाईप्रोफाइल सीटें अयोध्या, मैनपुरी, कन्नौज और अमेठी में भी भाजपा को शिकस्त का सामना करना पड़ा।
लोकसभा चुनाव 2024 में एनडीए गठबंधन ने यूपी में 35 सीटें जीती, जिसमें दो सीटें आरएलडी और 33 सीटें भाजपा की रहीं। वहीं इंडिया गठबंधन ने 43 सीटों पर अपना परचम लहराया। जिसमें 37 सीटों पर सपा और छह सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की।
कहां घिरी बीजेपी?
लोकसभा चुनाव के दरमयान सपा और कांग्रेस ने आर्थिक तंगी, संविधान को कमजोर करने का मुद्दा, अग्निवीर भर्ती, युवाओं के लिए रोजगार और आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा को घेरा। वहीं भाजपा विपक्ष के इस दांव को समझने असफल साबित हुई। साथ ही सपा ने दलित वोटरों में जबरदस्त सेंधमारी की और भाजपा के साथ-साथ मायावती को भी झटका दिया।
इसके साथ ही अखिलेश यादव ने इस बार टिकट बंटवारे को लेकर MY के फैक्टर को नकार दिया। गैर यादव जातियों पर उनका विशेष फोकस रहा। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने सिर्फ पांच यादव कैंडिडेट चुनाव में उतारे, जो कि उनके ही परिवार के थे।
अयोध्या में हार के पीछे का कारण?
फैजाबाद लोकसभा सीट पर आए परिणामों ने सबको स्तब्ध कर दिया था। समाजवादी पार्टी के अवधेश प्रसाद ने भाजपा के लल्लू सिंह को 54567 वोटों से शिकस्त दे दी। राजनीतिक जानकार मानते हैं अयोध्या में भाजपा की हार के कई कारण हैं। जिसमें लल्लू सिंह की लगातार कम होती लोकप्रियता, उनका जनता से न मिलना। दूसरा कारण उनका जातिवादी होना। तीसरा कारण राम मंदिर निर्माण के लिए छोटे-छोटे कई सारे मंदिर तोड़े जाने। इसके साथ ही कांग्रेस का परंपरागत वोटर का सपा की ओर झुकाव होना।
अमेठी में क्यों हारी स्मृति इरानी?
अमेठी लोकसभा सीट पर स्मृति इरानी के रूप में भाजपा को एक और बड़ा झटका लगा। 2019 की तरह भाजपा नेत्री अपना प्रदर्शन दोहरा नहीं पाई और कांग्रेस के किशोरी लाल शर्मा से उन्हें 1 लाख 67 हजार मतों से हार का सामना करना पड़ा। 2019 में राहुल गांधी को स्मृति ने हराकर जीत दर्ज की थी और इसे एक आम कार्यकर्ता की जीत बताई।
अमेठी विधानसभा से शुरू हुई गुटबाजी चुनाव प्रचार के दौरान एक के बाद एक विधान सभा क्षेत्र में फैलती गई। स्मृति की हार के पीछे दलित वोटरों का भाजपा के प्रति रुझान न होना और अगड़ों की नाराजगी भी बड़ी वजह रही। वहीं, पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं को नजर अंदाज करना भी भाजपा को भारी पड़ा।
स्मृति के खिलाफ नकारात्मक माहौल
चुनावी वर्ष में स्मृति ने अमेठी की जनता में गहरी पैठ बनाने के लिए विकास के मुद्दों के साथ तमाम प्रकार के आयोजन किए, बावजूद इसके उनके खिलाफ चुनाव में एक जबरदस्त नकारात्मक माहौल बना। विपक्ष द्वारा उन्हें आक्रामक नेता के तौर पर प्रस्तुत किया गया। भाजपा इसकी काट भी न खोज सकी, जिसका परिणाम बड़े अंतर के साथ उनकी हार के रूप में सामने आया।
भाजपा का पूरा फोकस लाभार्थी और दलित वोटर पर था। लेकिन अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित जगदीशपुर व सलोन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। सलोन में भाजपा विधायक अशोक कोरी के परिश्रम के बावजूद स्थिति यह हो गई कि वहां हार का अंतर सबसे बड़ा रहा।
इस बार अगड़े भी भाजपा से खिसके
2019 के चुनाव में ब्राह्मण और क्षत्रिय वोटरों ने स्मृति का खुल कर साथ दिया था। 2024 में यह नहीं हो सका और ज्यादातर ब्राह्मण और क्षत्रिय बहुल बूथों पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
वरुण गांधी का टिकट कटा
वहीं इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के दिग्गज नेता वरुण गांधी (Varun Gandhi) का टिकट काट दिया गया। लगातार जीत दर्ज कर रहे दिग्गज नेता पूरे चुनाव के दौरान खूब चर्चा में रहे। वरुण ने कुछ बगावती सुर भी दिखाए। हालांकि टिकट कटने के बाद उन्होंने चुनाव से पूरी तरह किनारा कर लिया। लेकिन वरुण का टिकट कटना भाजपा के लिए निगेटिव नरेटिव सेट हुआ।
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटें कम होने के बाद सियासी गलियारों में सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़े हुए। यहां तक की अफवाहें चलने लगी की अब आलाकमान योगी आदित्यनाथ का विकल्प तलाश करने में जुट गया है। हालांकि लोकसभा चुनाव के रिजल्ट के पांच महीने बाद इन सभी अटकलों पर यूपी विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने विराम लगा दिया।
विधानसभा उपचुनाव में भाजपा का कमबैक
यूपी की नौ विधानसभा (UP Assembly By Election) सीटों (सीसामऊ, फूलपुर, करहल, मझवां, कटेहरी, गाजियाबाद सदर, खैर, कुंदरकी और मीरापुर) पर उपचुनाव हुए। इन सभी सीटों पर योगी आदित्यनाथ ने खुद कमान संभाली, साथ ही साथ अपने कैबिनेट मंत्रियों को भी सीटों की जिम्मेदारी सौंपी। योगी के सामने यह चुनाव अपने नेतृत्व क्षमता को साबित करने और विरोधियों को उठते हुए स्वर को बंद करने का था। वहीं सपा मुखिया अखिलेश यादव के लिए यह उपचुनाव प्रदेश में मिली बढ़त को बरकरार रखने की थी। मायावती (Mayawati) ने भी विधानसभा उपचुनाव में अपने प्रत्याशियों को मैदान में उतारा।
'बटेंगे तो कटेंगे'
योगी ने उप चुनाव के दौरान 'बंटेंगे तो कटेंगे' का नारा दिया, वह पूरे देश में गूंजा। इस नारे के राजनीतिक निहितार्थ तो थे ही, जातियों में विभाजित हिंदुओं में एकता का संदेश भी था। जो उत्तर प्रदेश में छह सीटों पर भाजपा और एक पर रालोद, यानी सात सीटों पर जीत के रूप में फलित हुआ। वहीं समाजवादी पार्टी को उपचुनाव में बड़े नुकसान का सामना करना पड़ा। अखिलेश के 'पीडीए' का दांव योगी के 'बटेंगे तो कटेंगे' के सामने फीका नजर आया।
'बंटेंगे तो कटेंगे' (Batenge To Katenge) का व्यापक प्रभाव ही था कि 60 प्रतिशत से अधिक आबादी वाली कुंदरकी सीट और बसपा का वोट बैंक माने जाने वाले कटेहरी क्षेत्र में भाजपा को जीत हासिल हुई। सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, 'बंटेंगे तो कटेंगे' का नारा महाराष्ट्र से लेकर झारखंड के चुनाव तक गूंजा, जहां चुनाव प्रचार के लिए योगी की भारी डिमांड रही। यह केवल एक नारा ही नहीं था, जातियों की राजनीति कर रहे राजनीतिक दलों को सीधा जवाब भी था।
कुंदरकी में क्यों हारी सपा?
वहीं 60 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाली सीट कुंदरकी पर राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इसके पीछे भाजपा प्रत्याशी रामवीर सिंह का मुस्लिम कार्ड है। चुनाव प्रचार के दौरान रामवीर टोपी पहनकर मुस्लिम बस्तियों में घूमे, उनके हक की बात की। साथ ही अन्य सभी प्रत्याशियों के मुस्लिम समाज से होना जीत का कारण माना जा रहा है।
2024 का राजनीतिक दलों को संकेत
लोकसभा और विधानसभा उपचुनाव में एक नजर गौर से देखें तो जहां एक ओर क्षेत्रीय पुराने दल अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए जद्दोजहद करते नजर आए तो वहीं अखिलेश यादव का कद और बढ़ता नजर आया। मायावती को साल 2024 में एक बार फिर निराशा हाथ लगी। साथ ही बहुजन समाज पार्टी की स्थिति वर्तमान में बंद गली में आखिरी मकान जैसी होती नजर आ रही है। बसपा के परंपरागत वोटरों में चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी ने जबरदस्त सेंधमारी की है और प्रदेश में लगातार अपना दायरा बढ़ा रही है।
वहीं 'बंटेंगे तो कटेंगे' के नारे ने हिंदुत्व के प्रखर चेहरे के रूप में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक लाइन स्पष्ट कर दी है। इसके सहारे ही 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए आधार भूमि भी तैयार होगी।
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