1857 के स्वतंत्रता संग्राम की गवाह रही टीले वाली मस्जिद
लखनऊ की टीले वाली मस्जिद का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम से अब तक का इतिहास।
लखनऊ, जेएनएन। गंगा-जमुनी तहजीब का मरकज (केंद्र) कहा जाने वाला नवाबों का शहर वैसे तो अपनी संस्कृति के लिए दुनियाभर में मशहूर है, लेकिन अगर इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो यहां की ऐतिहासिक इमारतें आज भी वर्ष 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की गवाही देंगी।
देश की आजादी में लखनऊ ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। रेजीडेंसी हो, दिलकुशा कोठी या फिर मोती महल। न जाने शहर की कितनी ही ऐतिहासिक इमारतों में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत से मोर्चा लिया और उनको करारी शिकस्त दी। शहर की इन्हीं इमारतों में एक है पक्का पुल के पास गोमती नदी के किनारे बनी टीले वाली मस्जिद, जो आज भी स्वतंत्रता संग्राम की गवाह है। मस्जिद परिसर में लगे इमली के पेड़ पर करीब 40 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। अवध में बेगम हजरत महल के नेतृत्व प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी गई थी।
बेगम की अगुवाई में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाकर रख दी। लेकिन, अंत में युद्ध के दौरान अंग्रेजी हुकूमत ने कई क्रांतिकारियों को पकड़ लिया था, जिनमें मौलवी रसूल बक्श, हाफिज अब्दुल समद, मीर अब्बास, मीर कासिम अली और मम्मू खान आदि के नाम शामिल हैं। पकड़े गए कई गुमनाम क्रांतिकारियों को इमली के पेड़ से लटका कर मौत के घाट उतार दिया गया था। लेखक आजाद बिलग्रामी की पुस्तक 'मसायरुल कराम' में इस घटना का उल्लेख मिलता है।
घुस गई थी अंग्रेजी सेना
स्वतंत्रता संग्राम से पहले रेजीडेंसी सर हेनरी लॉरेंस का ठिकाना थी। मेरठ से उठी स्वतंत्रता की चिंगारी तेजी से अवध की ओर बढ़ रही थी। कुछ ही समय में यहां भी विद्रोह शुरू हो गया। क्रांतिकारियों के बुलंद हौसलों के आगे अंग्रेजी साम्राज्य हिलने लगा। क्रांतिकारियों ने रेजीडेंसी पर हमला बोल दिया। इसमें हेनरी लॉरेंस को गोली लगी और उसकी मौत हो गई। इसकी सूचना जब हेनरी हेवलॉक को मिली, तो वह जेम्स आउट्रम के साथ रेजीडेंसी में कैद अंग्रेजों की सहायता के लिए पूरी सेना को लेकर कानपुर के रास्ते लखनऊ पहुंचा। सेना के आने के बाद सेना ने क्रांतिकारी रेजीडेंसी में घेर लिया। लेकिन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के घेरे को खत्म कर रेजीडेंसी से निकलकर दरगाह शाह पीर मुहम्मद (मस्जिद परिसर में स्थित) में पनाह ली। इसके बाद सेना रेजीडेंसी के साथ दरगाह में घुस गई थी।
जुटता है नमाजियों का हुजूम
टीले वाली मस्जिद अपने आप में अनूठी है। ईद हो या बकरीद। यहां लाखों लोग एक साथ नमाज अदा करते हैं। यह मस्जिद मुगल वास्तुकला का शानदार नमूना है। मुगल बादशाह औरंगजेब के शासनकाल (1658-1707) में मस्जिद का निर्माण कराया गया था। शाह पीर मुहम्मद पहले से ही यहां रहते थे, मस्जिद से थोड़ी दूर पर उनकी कब्र (दरगाह) भी है। इस्लामिक अध्ययन में उनका नाम देश और विदेश में जाना जाता था। वर्ष 1674 में उनका इंतकाल हुआ था। टीले पर स्थित होने की वजह से इसका नाम टीले वाली मस्जिद पड़ा। टीले वाली मस्जिद में तीन गुंबद और ऊंची मीनारें हैं, जो की दूर से दिखाई देती हैं। मस्जिद उठे हुए चबूतरे पर ईंट और पत्थर से बनी हुई है। इसमें नमाज अदा करने के लिए तीन अलग-अलग हिस्से हैं।
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