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महंत नरेंद्र गिरि को लिटा कर दी गई भू-समाधि, जबकि संतों को बैठाकर समाधि देने की परंपरा, जानें- क्यों...?

ब्रह्मलीन संतों को समाधि देने की परंपरा बेहद प्राचीन है। महंत नरेंद्र गिरि की संदिग्ध हालात में हुई मौत के बाद संत परंपरा के अनुसार बुधवार को समाधि दी जाएगी। उनकी समाधि से पहले श्री मठ बाघम्बरी गद्दी से अंतिम यात्रा निकाली जाएगी जो संगम पहुंचेगी।

By Umesh TiwariEdited By: Published: Wed, 22 Sep 2021 11:30 AM (IST)Updated: Thu, 23 Sep 2021 06:49 AM (IST)
महंत नरेंद्र गिरि को लिटा कर दी गई भू-समाधि, जबकि संतों को बैठाकर समाधि देने की परंपरा, जानें- क्यों...?
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद अध्यक्ष के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि।

लखनऊ, जेएनएन। संतों की सबसे बड़ी संस्था अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद अध्यक्ष के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि की संदिग्ध हालात में हुई मौत के बाद संत परंपरा के अनुसार बुधवार को भू-समाधि दी गई। सोमवार शाम प्रयागराज स्थित श्री मठ बाघम्बरी गद्दी के गेस्ट हाउस स्थित कमरे में नरेंद्र गिरि मृत पाए गए थे। उनकी समाधि से पहले श्री मठ बाघम्बरी गद्दी से अंतिम यात्रा निकाली गई। यहां पार्थिव देह को स्नान कराने के बाद अंतिम यात्रा हनुमान मंदिर होते हुए श्री मठ बाघम्बरी गद्दी पहुंची, जहां समाधि देने की प्रक्रिया पूरी की गई। श्री निरंजनी अखाड़ा के पंच परमेश्वर ने प्रकिया पूरी कराई। आइये जानते हैं कि ब्रह्मलीन संतों के अंतिम संस्कार के क्या-क्या विधान...

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ब्रह्मलीन महंत नरेंद्र गिरि की भू-समाधि में पार्थिव देह रखे जाने से पहले चीनी, नमक और फल मिष्ठान डाला गया। मौजूद महात्मा और आमजन पुष्प, पैसा, मिट्टी आदि अर्पित कर प्रणाम किया। पार्थिव देह चंदन का लेप लगाकर भू-समाधि दी गई। परंपरा है कि संतों और महात्माओं को बैठने की मुद्रा में पार्थिव शरीर रखकर भू-समाधि दी जाती है, जबकि महंत नरेंद्र गिरि के पार्थिव शरीर के साथ ऐसा नहीं किया गया। विद्वानों ने बताया कि पोस्टमार्टम होने के कारण उनको लिटाकर भू-समाधि दी गई। वहीं, श्री मठ बाघम्बरी गद्दी में समाधि के बाद गुरुवार को धूल रोट का आयोजन होगा। धूल रोट ब्रह्मलीन होने के तीसरे दिन होता है। धूल रोट में रोटी में चीनी मिलाकर महात्माओं को वितरित किया जाता है। चावल व दाल प्रसाद स्वरूप वितरित होता है। सभी संत इसे ग्रहण कर मृतक के स्वर्ग प्राप्ति की कामना करते हैं।

ब्रह्मलीन संतों को समाधि देने की परंपरा बेहद प्राचीन है। तिरोधान के बाद संत की प्रतिष्ठा-परंपरानुसार जल या भू समाधि दी जाती है। समाधि की परंपरा त्रेता और द्वापर युग में नहीं थी। इसकी प्राचीनता का अनुमान भगवत्पाद् जगद्गुरु आदि शंकराचार्य की समाधि (492 ईसा पूर्व) से लगाया जा सकता है, जो आज भी केदारनाथ धाम में विद्यमान है। ब्रह्मलीन होने के बाद संन्यासियों का दाह संस्कार नहीं होता। उन्हें जल व भू-समाधि देने का विधान है। जल समाधि देने के लिए पार्थिव शरीर किसी पवित्र नदी की बीच धारा में विसर्जित किया जाता है। इस दौरान पार्थिव शरीर से कुछ वजनी वस्तु भी बांध देते हैं ताकि शव उतराए नहीं। भू-समाधि में पार्थिव शरीर को पांच फीट से अधिक जमीन के अंदर गाड़ा जाता है।

श्रीकाशी विद्वत परिषद के महामंत्री डा. रामनारायण द्विवेदी के अनुसार संतों को भू-समाधि इसलिए दी जाती है ताकि कालांतर में उनके अनुयायी अपने अराध्य का दर्शन और अनुभव उस स्थान पर जाकर कर सकें। हरिद्वार में शांतिकुंज के प्रमुख श्रीराम शर्मा आचार्य व मां भगवती देवी की स्मृति में सजल स्थल है। काशी में बाबा अपारनाथ की समाधि आज भी है जिन्होंने औरंगजेब जैसे क्रूर शासक से भी मठों-मंदिरों का निर्माण कराया था। भक्ति काल में जब तमाम संत धरा पर अवतरित हुए, उस समय समाधि परंपरा कुछ अधिक ही प्रचलित हुई।

गोस्वामी तुलसीदास, रैदास, कबीरदास और सूरदास समेत अनेक महापुरुषों ने भू-समाधि को श्रेष्ठ बताकर इस परंपरा को सम्मान दिया। भारत वर्ष में सिद्ध संतों में जीवित समाधि की परंपरा भी देखी गई है। वाराणसी में हाल ही में काशी अन्नपूर्णा मठ मंदिर के महंत रामेश्वर पुरी को भी भू समाधि दी गई। यह मठ की परंपरा के विपरीत था, लेकिन उनके द्वारा सहेजे-संवारे गए अन्नपूर्णा ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम में उनकी समाधि आज बटुकों के लिए प्रेरणा पुंज है।

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