इलाहाबाद के फूलपुर से लोकसभा उपचुनाव लड़ सकती हैं मायावती
बसपा इस फार्मूले पर दलितों को जोड़े रखने का हर जतन कर रही है ताकि 2019 नहीं तो 2022 में दलित मुस्लिम समीकरण मुफीद साबित हो सके।
लखनऊ (जेएनएन)। बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा यूं ही नहीं दिया। दरअसल, यह उनका मास्टर स्ट्रोक है, जो विधानसभा चुनाव के बाद छितराते जा रहे दलित वोट बैंक को एकजुट करने में सफल साबित हो सकता है। दलितों में भारतीय जनता पार्टी के प्रति बढ़ता लगाव बसपा की बड़ी चुनौती है और ऐसे में उन्हें यह संदेश देना ही थी कि वह 'अपने लोगों के हित में कोई भी कुर्बानी दे सकती हैं। चर्चा जोरों पर है कि मायावती फूलपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ सकती हैं।
विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद बसपा की बेचैनी को राष्ट्रपति चुनाव ने बढ़ा दिया। जाहिर है कि रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बने तो दलितों के बीच पकड़ बनाए रखना बसपा के लिए आसान नहीं होगा। भाजपा को दलित विरोधी बताकर वोट बटोरने में भी मुश्किलें आएगी। एक और बड़ी चिंता दलितों के बीच भीम आर्मी सरीखे संगठनों की लोकप्रियता बढऩा भी है। सहारनपुर के शब्बीरपुर प्रकरण ने बसपा की जड़ों पर चोट किया है। उनके इस्तीफे को दलित वोटों को लेकर बाहरी व भीतरी हमलों का जवाब माना जा रहा है।
दलित चिंतक डा.वीर सिंह का कहना है कि बसपा सुप्रीमो का राज्यसभा में कार्यकाल एक वर्ष से कम रह गया है और अपने बूते फिर सदस्यता हासिल करने की संभावना भी नहीं है। ऐसे में मायावती राज्यसभा से इस्तीफा देकर दलित हित के लिए बलिदानी भूमिका को कैश करना चाहेगी। इसका लाभ आने वाले दिनों में कितना मिलेगा यह कहना अभी जल्दबाजी है परंतु इतना तय है कि दलित उत्पीडऩ को लेकर सड़कों पर संघर्ष में मदद मिलेगी।
दलित साथ रहे तो मुस्लिम भी जुड़ेंगे
पिछले विधानसभा चुनाव में दलित मुस्लिम गठजोड़ भले ही कारगर नहीं हो सका परंतु बसपा रणनीतिकारों का मानना है कि भगवा बिग्रेड के तेजी से बढ़ते प्रभाव को इसी समीकरण से रोका जा सकता है। बसपा के इस्लाम अंसारी का कहना है कि गत दोनों चुनावों में बसपा का वोट प्रतिशत अधिक कम नहीं हुआ है। दलितों में बड़ा हिस्सा अभी बसपा के साथ है परंतु पिछड़े और अतिपिछड़े वोट छिटक कर भाजपाई हो गए। उधर, मुस्लिमों में सपा का मोह भी बना रहा जिस कारण बसपा को नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे में बसपा के लिए दलितों में पकड़ बनाए रखना पहली जरूरत है। जानकारों का कहना है कि बसपा इस फार्मूले पर दलितों को जोड़े रखने का हर जतन कर रही है ताकि 2019 नहीं तो 2022 में दलित मुस्लिम समीकरण मुफीद साबित हो सके।
राज्यसभा में नौ माह बचा था कार्यकाल
राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र का ऐलान करने वाली बसपा प्रमुख मायावती का मात्र नौ माह कार्यकाल ही बचा था। उनका कार्यकाल आगामी दो अप्रैल 2018 को पूरा होगा और मौजूदा बसपा विधायकों की संख्या के बूते ही फिर राज्यसभा में प्रवेश पाना संभव नहीं। राज्यसभा की सदस्यता बचाए रखने के लिए उनको किसी दल का समर्थन जरूर चाहिए। इस्तीफे से सियासी हलचल मचाने वाली बसपा प्रमुख मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। वर्ष 1995 में उन्होंने पहली बार सूबे की बागडोर भाजपा के समर्थन से संभाली। पहली दलित मुख्यमंत्री बनी मायावती 1984 में कांशीराम के संपर्क में आने के बाद से धीरे धीरे संगठन में सबसे ताकतवर नेता बनी। वर्ष 1989 में वह बिजनौर लोकसभा सीट (सुरक्षित) से पहली बार सांसद चुनी गईं। वर्ष 1994 में वह पहली बार राज्यसभा के लिए चुनी गईं।
राज्यसभा में बसपा के अब पांच सदस्य
मायावती द्वारा इस्तीफा देने के बाद राज्यसभा में बसपा सदस्यों की संख्या पांच रह गयी है, जिसमें सतीश मिश्रा, मुनकाद अली, राजाराम, वीर सिंह एडवोकेट और डा.अशोक सिद्धार्थ शामिल हैं।