Navratri 2025: कानपुर के इन तीन देवियों से जुड़ा हजारों साल पुरानी धार्मिक आस्था, मां बारा देवी की कहानी रोचक
कानपुर में शारदीय नवरात्र की तैयारियां ज़ोरों पर हैं। 22 सितंबर से शुरू हो रहे नवरात्र के लिए मंदिरों में विशेष व्यवस्था की जा रही है। बाराहदेवी मंदिर जंगली देवी मंदिर और कुष्मांडा देवी मंदिर में भक्तों की सुविधा और सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा जा रहा है। साफ़-सफ़ाई से लेकर दर्शन की विशेष व्यवस्था की गई है। नवरात्र के दौरान मंदिरों में भारी भीड़ उमड़ने की संभावना है।

जागरण संवाददाता, कानपुर। शारदीय नवरात्र 22 सितंबर से शुरू हो रहे हैं। ऐसे में कानपुर की इन तीन देवियों के दर्शन न हो तो मानों नवरात्र अधूरा सा लगता है। इनमें एक देवी शक्तिपीठ भी हैं।
देवी मंदिरों में भक्तों की भारी भीड़ को देखते हुए मंदिर प्रबंधन और स्थानीय प्रशासन श्रद्धालुओं के लिए बिजली, पानी और साफ-सफाई जैसी आवश्यक व्यवस्थाएं दुरुस्त कर रहे हैं। मंदिर परिसर और आसपास के क्षेत्रों में साफ-सफाई बनाए रखने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। आने-जाने के रास्तों को चकाचक किया जा रहा है। मजबूर सुरक्षा व्यवस्था के लिए पुलिस की तैनाती के साथ ही सीसी कैमरे कर जाल बिछाया जा रहा है, ताकि श्रद्धालुओं के साथ ही हर आने-जाने वालों की गतिविधि पर विशेष नजर रखी जा सके। इतना ही नहीं मंदिर में आने वाले पुरुष और महिला भक्तों को दर्शनों के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं की जा रही है। इसके लिए मंदिर जाने के रास्ते को बैरिकेडिंग किया जा रहा है। निकलने के लिए भी व्यवस्था अलग से की जा रही है, ताकि भक्तों को किसी प्रकार की कोई असुविधा न हो।
जूही बारा देवी मंदिर
बेहद पुराना और चमत्कारिक मंदिर है। यह मंदिर लगभग 1700 वर्ष पुराना बताया जाता है। इस मंदिर को लेकर कहानी है कि पिता से अनबन के बाद 12 बहनें घर से निकलकर यहां आकर रहने लगी थीं और बाद में वह पत्थर की बन गई थीं। तब से यह मंदिर पूजा जाने लगा। वहीं, उनके श्राप से उनके पिता भी पत्थर के हो गए थे। इलाके का नाम भी बारा देवी पड़ गया। मंदिर की सबसे खास बात यह है कि भक्त अपनी मनोकामना मानकर चुनरी बांधते हैं। नवरात्र में सुबह से ही इस मंदिर पर लोगों की भीड़ लग जाती है। नवरात्र में प्रत्येक दिन लगभग यहां पर एक लाख से अधिक लोग दर्शन करते हैं। मुरादें पूरी होने के बाद भक्त यहां पर मां का शृंगार कराते हैं। इतना ही नहीं यहां पहले खतरनाक तरीके से नवरात्रों में भक्ति कर्तव्य दिखाते थे। कोई मुंह में नुकीली धातुओं को आर-पार कर मंदिर जाते थे तो कई लोग यहां पर जीभ काटकर भी चढ़ा चुके हैं। प्रशासन की सख्ती के चलते इस तरीके की प्रथाओं पर रोक लग गई है। मंदिर जाने के लिए चार प्रमुख द्वार है, जो पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण हैं। अधिकांश भक्त प्रमुख द्वार पूर्व की ओर से मंदिर में प्रवेश करते हैं। नवरात्र पर मेले का आयोजन भी हुआ है, जिसमें बच्चों से लेकर हर वर्ग को ख्याल में रखकर दुकानें और झूले भी लगते हैं। यहां पर आसपास के जिलों के साथ ही देशभर से श्रद्धालु माता के दर्शनों को आते हैं।
मंदिर में तैयारियां अंतिम पर है। माता के दर्शनों को प्रतिदिन 50 हजार से ज्यादा भक्त आते हैं। सुबह 3 बजे पट खुलने के पहले ही भक्तों का ताता लग जाता है, जो देर रात पट बंद हाेने तक जारी रहता है।
-रूपम शर्मा, अध्यक्ष बारादेवी मंदिर ट्रस्ट
किदवई नगर जंगली देवी
करीब 1400 वर्ष पुराना मंदिर है। इस मंदिर का इतिहास अभिलेखों में दर्ज है। मो. बकर के मकान की नींव की खुदाई के दौरान ताम्रपत्र मिला था, जिसमें उर्दू से लिखा हुआ था। उसी के मकान में लगे नीम के पेड़ की खोह में मां की प्रतिमा विराजमान थी। वर्ष 1979 में आए तूफान में नीम का पेड़ गिर गया था।इसके बाद लोगों ने चंदा करके भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। यहां 45 वर्षों से अखंड ज्योति जल रही है।मां की प्रतिमा दिन में तीन बार स्वरूप बदलती है। शयन आरती के वक्त मां का मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखाई देता है। मां की प्रतिमा 2.45 कुंतल चांदी के सिंहासन में विराजमान है। मान्यता है कि यहां पर ईंट चढ़ाने से मां मुराद पूरी कर देती है। मंदिर के सौंद्रयीकरण को लेकर प्रवेश द्वार को भव्य रूप देने का काम चल रहा है।
मंदिर में सौंद्रयीकरण कार्य तेजी से चल रहा है। नवरात्र के दौरान मां की प्रतिमा और गर्भगृह को फूलों से सजाया जाता है। रोजान कन्या भोज के साथ ही छठवें दिन खजाना वितरण होता है।
-विजय पांडेय, महामंत्री, जंगली देवी मंदिर ट्रस्ट
घाटमपुर, कुष्मांडा देवी मंदिर
मंदिर करीब एक हजार साल पुराना है। माता के मंदिर में सालों से अखंड ज्योति जल रही है। इतिहासकारों के मुताबिक इस मंदिर की नींव पहली बार सन् 1380 में राजा घाटमपुर दर्शन ने रखी थी। उन्हीं के नाम पर नगर का नाम घाटमपुर पड़ा। वहीं, 1890 में चंदीदीन भुर्जी नाम के एक व्यवसायी ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। मराठा शैली में बने मंदिर में स्थापित मूर्तियां संभवत: दूसरी से दसवीं शताब्दी के मध्य की हैं। भदरस गांव के एक कवि उम्मेदराय खरे ने सन 1783 में फारसी में ऐश आफ्जा नाम की पांडुलिपि लिखी थी, जिसमें माता कुष्मांडा और भदरस की माता भद्रकाली का वर्णन किया है। मान्यता यह भी है कि करीब एक हजार साल पहले कुड़हा नाम का ग्वाला यहां गाय चराता था। उसकी गाय एक जगह पर अपना दूध गिरा देती थी। जब उस जगह की खुदाई हुई तो मां की पिंडी निकली। कुष्मांडा देवी को कुड़हा देवी भी कहा जाता है। माता की पिंड रूपी मूर्ति में चढ़ाये गए जल को लेकर मान्यता है की यदि आंखों पर लगाया जाए तो अनेक रोग दूर हो सकते हैं। इस मंदिर में माता पिंडी के रूप में विराजित हैं। ये लेटी मुद्रा में प्रतीत होती है। मंदिर परिसर में तैयारियां शुरू हो गई हैं। तालाब की सफाई हो रही है। इसके साथ ही दुकानें सजना शुरू हो गई हैं। पालिका अधिशाषी अधिकारी का कहना है कि बेरिकेडिंग के जरिए पुरुष और महिलाओं के दर्शन की अलग-अलग व्यवस्था की जाएगी।
मंदिर परिसर में सफाई चल रही है। तैयारियां की जा रही हैं। माता के दर्शन के लिए नवरात्र में करीब 50 हजार श्रद्धालु प्रतिदिन पहुंचते हैं। चतुर्थ दिन भव्य दीपदान का आयोजन होता है।
-लल्लू सैनी, अध्यक्ष, कूष्मांडा देवी (कुढ़हा देवी) माली सेवा समिति
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