Kanpur Nag Panchami 2025: कानपुर में नागपंचमी पर पांच करोड़ का रह गया पतंग बाजार, प्रदेशभर में सप्लाई
कानपुर में पतंगों का कारोबार घट रहा है। कभी 15 करोड़ का कारोबार अब 5 करोड़ तक सिमट गया है। 2300 साल पहले चीन में पतंगों का इस्तेमाल संदेश भेजने के लिए होता था पर अब यह शौक और खेल बन गया है। ऊंची इमारतें और मोबाइल के बढ़ते इस्तेमाल से पतंगबाजी कम हो रही है।

विपिन त्रिवेदी, जागरण, कानपुर। Kanpur Nag Panchami 2025: नागपंचमी और रक्षाबंधन का त्योहार आते ही कानों में एक और फिल्मी गीत गूंज उठता है। चली-चली रे पतंग मेरी चली रे...हो के डोर पर सवार...चली बादलों के पार देखो चली रे। करीब 2300 साल पूर्व संदेशवाहक के रूप में चीन में पतंग की उत्पत्ति हुई। इसके जरिए दूर तक संदेशों को भेजा जाता था, लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता के साथ तकनीक विकसित होती गई, लोगों ने पतंग को शौकिया उड़ाना शुरू कर दिया।
धीरे-धीरे यह हर उम्र की पसंद बन चुकी थी। बस इंतजार होता था किसी विशेष मौके का। कोई भी बिना डोर खींचे खुद को रोक नहीं पाता था। आज यही पतंगबाजी एक खेल के रूप में जरूर विकसित हो चुकी है, लेकिन इसके कारोबार से जुड़े लोग घटती लोकप्रियता से बेचैन हैं। कानपुर से प्रदेश भर में पतंग सप्लाई होती है। अब यहां का कारोबार 15 करोड़ से सिमट कर पांच करोड़ रह गया।
तंग का कारोबार करने वाले उस्मानपुर कालोनी निवासी कमाल मेंहदी उर्फ बाबी बताते हैं कि करीब पांच साल पहले तक पतंगों की खूब मांग रहती थी। दिन भर पतंग बनाने और बेचने का काम चलता था। सांस लेने तक की फुर्सत नहीं थी। दुकान पर बच्चों के साथ ही हर उम्र के लोगों की भीड़ बनी रहती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब तो सिर्फ कुछ ही मौके आते हैं, जब पतंगों की मांग होती है। पहले होली और गंगा मेला के बाद ही पतंगों की मांग शुरू हो जाती थी। सितंबर के बाद इनकी मांग धीरे-धीरे कम होती थी। अब पंद्रह अगस्त, रक्षाबंधन और नागपंचमी पर्व पर ही पतंगों की ज्यादा मांग रहती है।
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ऊंची इमारतों और मोबाइल से ढीली हुई डोर
पतंग कारोबारी कमाल मेंहदी बताते हैं कि पहले शहर भी इतना विकसित नहीं था। हर जगह खुले मैदान होते थे। ऊंची इमारतें नहीं थीं और न ही मोबाइल। ऊंची इमारतों के साथ ही मोबाइल के बढ़ते चलन में पतंग की डोर ढीली पड़ती जा रही है।
कार्टून वाली पतंगें, फिर भी रीझ नहीं रहे बच्चे
कारोबार करने वाले बच्चों से लेकर बड़े तक सबको ध्यान में रखकर पतंग बना रहे हैं। कारोबारी कमाल मेंहदी बताते हैं कि पतंगों को भी अलग-अलग नाम से जाना जाता है। इनमें बिना पूंछ की बड़ पत्ता, झालर, तिरंगा, मेटल, पौना और राकेट शामिल हैं, जिसे बड़े बच्चे अपनी पसंद के हिसाब से खरीदते हैं। बच्चों को रिझाने के लिए कार्टून वाली पतंगें हैं, लेकिन वह भी अब उन्हें रिझा नहीं पा रही हैं।
आकर्षण का ख्याल, मशीनों का हो रहा इस्तेमाल
आधुनिकता के दौर में पसंद का भी ख्याल रखा जा रहा है। बच्चों को आकर्षित करने के लिए अब डिजाइनर पतंगें बनाई जा रही हैं। इसके लिए पतंगों की डिजाइनों को मशीनों से काटा जा रहा है। पहले यही काम हाथों से होता था। पतंगें बनाने के लिए अहमदाबाद से पन्नी और कागज मंगाया जा रहा है। बांस की कमानी गोंडा के तुलसी नगर से आती है, जो अलग अलग साइज की मशीनों से काट कर तैयार की जा रही है।
पांच करोड़ का रह गया बाजार, प्रदेशभर में सप्लाई
कारोबारी कमाल मेंहदी के मुताबिक, पहले शहर में बड़े स्तर पर पतंग बनाने का कारोबार था। अब जैसे-जैसे मांग घट रही है, कारोबार भी सिमटता जा रहा है। पहले यह कारोबार शहरभर में फैला था। नौबस्ता, बाबूपुरवा, उस्मानपुर, चमनगंज, बेकनगंज, बकरमंडी समेत कई इलाकों में पतंग बनती थी। पहले यही कारोबार 10-15 करोड़ रुपये सलाना का था, जो अब सिमटकर पांच करोड़ के आसपास रह गया है। यहां की बनीं पतंगे पूरे प्रदेश में सप्लाई होती हैं। खासकर लखनऊ, उन्नाव, बाराबंकी, फतेहपुर, बरेली, प्रयागराज और वाराणसी में यहां की पतंगों की सबसे ज्यादा मांग रहती है।
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