कानपुर का गुरुदेव चौराहा, यह उजड़े परिवारों के संघर्ष और भावुक कर देने वाले पिता की कहानी को करता बयां
कानपुर का गुरुदेव चौराहा। गुरुदेव टाकीज के नाम से इस चौराहे का नाम हुआ। कानपुर आने के बाद अमरीक सिंह ने इस चौराहे को पहचान दी। वर्ष 1983 में सरदार अमरीक सिंह ने रेलवे पटरी के पास उस इलाके में 3500 वर्गगज जमीन खरीदी जिसे लोग उस समय जंगल कहा करते थे। यहां उन्होंने एक सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल की नींव रखी।

जागरण संवाददाता, कानपुर। जब भी गुरुदेव चौराहा कहें...तो याद रहे, ये सिर्फ एक चौराहा नहीं है। यह उन उजड़े परिवारों की उस जिजीविषा का प्रतीक है जिन्होंने दर्द में भी सपना देखा और उसे सच कर दिखाया। यह अमरीक सिंह सलूजा जैसे पिता की उस सोच का नतीजा है, जो बेटे को नाम नहीं, नाम को पहचान दे गए। यह केवल एक ट्रैफिक सिग्नल नहीं बल्कि संघर्ष, समर्पण और सपनों की जमीन पर खड़ा एक प्रतीक है। जिन सरदार गुरुदेव सिंह सलूजा के नाम पर यह चौराहा है, वह आज भी पिता को याद करके भावुक हो जाते हैं। पढ़िए जागरण संवाददाता रितेश द्विवेदी की रिपोर्ट....
समय की धूल में छिपी कुछ कहानियां सिर्फ इतिहास नहीं होतीं, वे शहर की आत्मा बन जाती हैं। ऐसी ही एक कहानी है गुरुदेव चौराहे की। यह चौराहा आज जितना व्यस्त और चर्चित है, उतनी ही मार्मिक इसकी पृष्ठभूमि है। यह चौराहा सिर्फ एक ट्रैफिक सिग्नल नहीं, बल्कि एक उजड़े परिवार के संघर्ष, एक पिता के त्याग और बेटे के नाम पर रची गई विरासत की जीवित गवाही है।
कहानी शुरू होती है वर्ष 1948 से, जब देश आजाद हुआ और बंटवारे का दर्द लाखों परिवारों के जीवन में जहर बनकर घुल गया। पाकिस्तान के लाहौर के पास स्थित सरायं आलमगीर गांव से विस्थापित होकर सरदार अमरीक सिंह सलूजा अपने परिवार के साथ कानपुर पहुंचे। परिवार में पत्नी भागवंती, तीन बेटे सोविंदर पाल सिंह उर्फ टीटू सलूजा, जेएम सलूजा और सबसे छोटे बेटे गुरुदेव सिंह सलूजा के अलावा दो बेटियां मां की गोद में खेल रही थीं। जेब में कुछ नहीं था, लेकिन आंखों में बच्चों के बेहतर भविष्य का सपना जरूर था।
स्व. सरदार अमरीक सिंह व उनकी पत्नी स्व. भागवंती l जागरण
कानपुर आने के बाद अमरीक सिंह ने साइकिल से कपड़े बेचने का काम शुरू किया। मेहनत, ईमानदारी और आत्मबल से धीरे-धीरे कारोबार में स्थिरता आई। फिर एक ऐसा फैसला लिया गया, जिसने इस परिवार को ही नहीं, पूरे शहर को एक नई पहचान दे दी। वर्ष 1983 में सरदार अमरीक सिंह ने रेलवे पटरी के पास उस इलाके में 3500 वर्गगज जमीन खरीदी, जिसे लोग उस समय जंगल कहा करते थे। यहां उन्होंने एक सिंगल स्क्रीन सिनेमा हाल की नींव रखी।
गुरुदेव पैलेस, जो उन्होंने अपने सबसे छोटे बेटे गुरुदेव सिंह सलूजा के नाम पर शुरू किया। जहां आम पिता अपने नाम को आगे बढ़ाते हैं, वहीं उन्होंने बेटे के नाम को पहचान बना दी। उस समय जब पूरे शहर में 35 से अधिक सिनेमा हाल संचालित हो रहे थे, लोगों को यह निर्णय हैरान करने वाला लगा। कइयों ने ताना भी मारा यहां कौन फिल्म देखने आएगा? लेकिन अमरीक सिंह के आत्मविश्वास और दूरदृष्टि ने सबको गलत साबित कर दिया। धीरे-धीरे सिनेमा हाल से लेकर चौराहा तक लोकप्रिय हुआ। आसपास की बस्तियां विकसित होने लगीं और वही वीरान इलाका गुरुदेव चौराहे के नाम से जाना जाने लगा।
सरदार गुरुदेव सिंह सलूजा व सरदार सोविंदर पाल सिंह उर्फ टीटू सलूजाl जागरण
सिख विरोधी दंगों का सिनेमा हाल पर पड़ा असर
गुरुदेव सिनेमा तक दर्शकों की पहुंच आसान नहीं थी, क्योंकि उस समय रेलवे क्रासिंग नहीं थी। इस समस्या के समाधान के लिए परिवार ने मुंबई तक जाकर संघर्ष किया और आखिरकार रेलवे क्रासिंग की मंजूरी मिली। इसके बाद यह चौराहा अस्तित्व में आने के साथ ही ‘गुरुदेव’ नाम से ही पहचाना जाने लगा। वर्ष 1984 के सिख विरोधी दंगों का असर गुरुदेव सिनेमा हाल पर भी पड़ा। तीन माह तक इसका संचालन बंद रहा। हालात सामान्य होने के बाद चौराहे पर पुलिस चौकी की स्थापना की गई और सिनेमा का संचालन फिर से शुरू किया गया।
सहेज रखी पिता की चप्पल और कुर्सी
बड़े बेटे सोविंदर पाल सिंह उर्फ टीटू सलूजा ने बताया कि पिता अमरीक सिंह का निधन वर्ष 2005 में हुआ, लेकिन उनकी बनाई गई विरासत आज भी उनके भाई और पूरे परिवार के लिए सम्मान और प्रेरणा का स्रोत है। सोविंदर पाल सिंह आज भी अपने कार्यालय में पिता द्वारा पहनी गई चप्पलें और उनकी कुर्सी को सहेजकर रखे हैं। वहीं सरदार गुरुदेव सिंह सलूजा, जिनके नाम पर यह सिनेमा और चौराहा है, भावुक होकर कहते हैं कि उनके पिता ने सिर्फ कारोबार नहीं, पहचान दी। गुरुदेव चौराहा आज एक प्रमुख व्यावसायिक और यातायात केंद्र बन चुका है, लेकिन इसके पीछे की कहानी आज भी लोगों को उस दौर की याद दिलाती है, जब एक उजड़ा हुआ परिवार मेहनत और दृढ़ निश्चय से पूरे शहर की पहचान बन गया।
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