ऐतिहासिक महत्व रखने वाला कानपुर का भीतरगांव... जहां पांच दिन बसता है ब्रज धाम
कानपुर के भीतरगांव में कार्तिक पूर्णिमा के बाद पांच दिनों तक ब्रज धाम जैसा माहौल रहता है। यहां श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं और कंस वध की कहानियों का मंचन होता है, जिसमें गांव के बच्चे भाग लेते हैं। 149 वर्षों से यह परंपरा चली आ रही है, जिसकी तैयारी दशहरा से शुरू हो जाती है। इस दौरान ब्रज भाषा और संगीत का प्रशिक्षण दिया जाता है, और गांव में उत्सव का माहौल रहता है।

श्री कृष्ण लीला का मंचन करने वाले बच्चे। कमेटी
आलोक तिवारी, जागरण, कानपुर। ब्रज सा उत्साह, संस्कृति और लोककला की झलक देखनी है तो नर्वल तहसील के भीतरगांव आइए। यहां कार्तिक पूर्णिमा के बाद से पांच दिन तक ब्रज की गलियों सा नजारा रहता है। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर कंस वध तक की कहानी को जीवंत किया जाता है।
खास बात यह है कि इसे गांव के बच्चे ही जीवंत करते हैं जो इस लीला के किरदारों का पात्र बखूबी निभाते हैं। वहीं, लोग इसे लोक कला से कहीं आगे साक्षात ईश्वर लीला मानते हैं। 149 वर्षों से भीतरगांव में हो रही श्री कृष्ण लीला पर प्रस्तुत है रिपोर्ट...
149 वर्षों से लगातार मंचन
भीतरगांव की श्रीकृष्ण लीला परंपराओं को सहेजने और संवारने का जीवंत उदाहरण है। गांव के बुजुर्गों द्वारा शुरू की गई परंपरा का नई पीढ़ी भी पूरी आस्था के साथ निर्वहन करने में जुटी है। ग्रामीण बताते हैं कि लीला के मंचन के दिनों में गांव का हर व्यक्ति पूरी श्रद्धा, निष्ठा और करुणा से इस काम में तल्लीन रहता है। यही वजह है कि अपने मूल स्वरूप को बदले बिना ही आधुनिकताओं को अपनाते हुए बीते 149 वर्षों से लगातार श्री कृष्ण लीला का सफलतापूर्वक मंचन हो रहा है।
दशहरा से शुरू हो जाती तैयारी
श्रीकृष्ण लीला कमेटी के अध्यक्ष प्रदीप कुमारी अवस्थी बताते हैं कि इसके पीछे सिर्फ पांच दिन की मेहनत नहीं है। इसके लिए दशहरा से ही तैयारी शुरू हो जाती है। सबसे पहले गांव के बच्चों में से ही पात्रों का चयन किया जाता है। हर एक बच्चे में श्रीकृष्ण का किरदार निभाने की होड़ रहती है। हालांकि, हिंदी साहित्य और संगीत में रुचि रखने वाले बच्चों को वरीयता मिलती है।
ब्रज भाषा और संगीत का प्रशिक्षण
इसके बाद गांव के लोग उनको अभिनय के साथ-साथ ब्रज भाषा और संगीत का प्रशिक्षण देते हैं। उपाध्यक्ष सुड्डन अवस्थी बताते हैं कि पश्चिमी अवधी भाषा का क्षेत्र होने के बावजूद बच्चे आसानी से ब्रज भाषा सीख जाते हैं। दरअसल, लीला में ज्यादातर संवाद इसी भाषा में होता है। करीब एक महीने तक उन्हें प्रशिक्षण देकर लीला के मंचन के लिए तैयार किया जाता है।
सवारी का भोग लगाने की होड़
कमेटी के उपमंत्री और गांव के पूर्व प्रधान शिव प्रकाश पांडेय बताते हैं कि लीला का मंचन करने वाले गांव के बच्चों के प्रति ग्रामीणों की आस्था भगवान जैसी ही होती है। मंचन की शुरुआत से समापन तक वे लीला स्थल में ही रहते हैं। इन पांच दिनों के लिए लीला स्थल को ब्रज धाम और यहां रहने वाले लोगों को पूज्य माना जाता है। अंतिम दो दिन पूरे गांव में सवारी घूमती है। इस दौरान गांव के लोगों में उनका भोग लगाने की होड़ रहती है।
ये है मान्यता
मान्यता है कि ऐसा करने से उनके सभी अधूरे काम पूरे होते हैं। यह सवारी गांव में घूमते हुए बाहरी हिस्से में बने मेला स्थल तक जाती है, जहां कंस की प्रतिमा बनी हुई है। श्रीकृष्ण, भाई बलदाऊ के साथ यहां पहुंचकर पहले चेतावनी देते हैं, फिर अगले दिन कंस का वध कर देते हैं। इसके साथ ही पूरे गांव में उत्सव की लहर दौड़ जाती है।
ऐसे शुरू हुई परंपरा
पेशे से शिक्षक ग्रामीण मंयक शुक्ला बताते हैं कि सन 1874 में गांव के कुछ लोग वृंदावन गए थे। वहां उपलब्ध दस्तावेजों के जरिये जानकारी हुई कि कार्तिक पूर्णिमा के बाद पांच दिनों के लिए भीतरगांव में ब्रज धाम बसता है। इसके बाद उन्होंने वहां करीब तीन माह रहकर श्रीकृष्ण लीला सीखी और वापस लौटकर इस परंपरा की शुरुआत की। वह दावा करते हैं कि श्री कृष्ण लीला के सबसे पुराने स्वरूप का मंचन सिर्फ भीतरगांव में ही किया जाता है। यही वजह है कि पात्रों का संवाद ब्रज भाषा में होता है।
लोककला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में
ग्रामीण बताते हैं कि बुजुर्गों की परंपरा को गांव के लिए लोग आगे बढ़ाते गए। लीला में पात्र निभाने वाले कलाकार अधिक आयु होने पर बच्चों को मंचन को सिखाने लगे। इस वजह से बिना किसी बदलाव के यह लोककला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती चली गई।
गांव की अर्थव्यवस्था भी हो रही सुदृढ़
ग्रामीण अखिल पांडेय ने बताया कि श्रीकृष्ण लीला देखने के लिए दूरदराज रहने वाले रिश्तेदार घर आते हैं। लीला के मंचन के दिनों में यह स्थिति गांव के हर एक घर की रहती है। वह पांच दिनों तक यहीं रहते हैं। इससे पांच दिनों तक हर एक चीज की मंग बढ़ जाती है। इसके अलावा दूरदराज से लोग सवारी निकलने और कंस वध की लीला के मंचन के दिन गांव आते हैं। इतनी संख्या में एक साथ लोगों का आना गांव की अर्थव्यवस्था को तो मजबूत ही कर रही है, यहां लगने वाला मेला स्थानीय उत्पादों को बेहतर मंच भी प्रदान कर रहा है। वह बताते हैं कि प्रधानमंत्री की आत्मनिर्भर भारत मुहिम के बाद से ग्रामीण मेलों में प्रदर्शित होने वाले उत्पादों को लोग तरजीह दे रहे हैं।
ऐसे पहुंचें भीतरगांव
नौबस्ता चौराहे से आटो-टेंपों या ई-बस के जरिये साढ़ चौराहा पहुंचिए। यहां से ई-रिक्शा या आटो के जरिये भीतरगांव पहुंचा जा सकता है। इसके अलावा निजी वाहनों से जाने वाले लोग नौबस्ता से हमीरपुर रोड पर रमईपुर तिराहे से बाएं मुड़कर साढ़ चौराहे पहुंचते हैं। यहां डिफेंस कारिडोर वाले कट से पहले दाएं मुड़ने पर करीब 10 किलोमीटर दूरी पर भीतरगांव है।

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