एक ऐसा ज्वार उठा जब तीन दिन के लिए सत्ताविहीन हो गए थे अंग्रेज, अलग है शेरपुर के शूरवीरों की कहानी
यूपी के शेरपुर गांव डा. शिवपूजन राय के नेतृत्व वाले प्रदर्शन से युवाओं में ऐसा ज्वार उठा था कि तीन दिनों के लिए अंग्रेजों की सत्ता छिन गई थी। राजनेताओं की गिरफ्तारी के बाद माहौल और भड़क गया था।

उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के शेरपुर गांव की प्रतिष्ठा बलिदानियों के गांव के रूप में है। असहयोग आंदोलन ने इस गांव के लोगों में नई चेतना पैदा की। डा. शिवपूजन राय के नेतृत्व में हुए प्रदर्शन से शेरपुर व उसके आस-पास के युवाओं में ऐसा ज्वार उठा कि तीन दिनों के लिए ही सही, अंग्रेजों से सत्ता छीन ली गई। इस स्वाधीनता तीर्थ और इसके नायक को याद करता मनोज कुमार राय का आलेख...
वे वर्ष 1942 के सुलगते दिन थे। एक दशक पहले बेरहमी से कुचला गया सविनय अवज्ञा आंदोलन अपनी राख से दोबारा उठ बैठा था। अंग्रेजों भारत छोड़ो की सिंह गर्जना के साथ उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले के शेरपुर गांव में कई सप्ताहों से सभा और धारा-144 को तोड़ने का कार्यक्रम चलाते हुए जन-जागृति जुलूस आयोजित किए जा रहे थे। मुंबई में महात्मा गांधी सहित अनेक राजनेताओं की गिरफ्तारी की सूचना ने शेरपुर के माहौल को और भड़का दिया।
11 अगस्त को शेरपुर के दो छात्रों यमुना गिरि और भोला राय ने विद्यालय में मीटिंग की और दूसरे दिन मुहम्मदाबाद के तीन विद्यालयों में हड़ताल की व जुलूस का नेतृत्व किया। तब जिला मजिस्ट्रेट के आदेश पर पुलिस ने भोला राय के हाथ से राष्ट्रीय ध्वज छीनकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जिस पर दूसरे दिन यमुना गिरि के सुझाव से गाजीपुर घाट स्टेशन को आम लोगों ने जला दिया, निर्माणाधीन हवाई अड्डे पर आक्रमण किया और झोपड़ियों में रखे साजो-समान में आग लगा दी।
जीवंत किया आंदोलन
शेरपुर गांव के लोगों द्वारा जगह-जगह सरकारी मशीनरी को ठप करने का उद्देश्य सिर्फ विरोध प्रदर्शित करना था। लूटे गए खजाने को भी किसी ने हाथ तक नहीं लगाया। व्यक्तिगत सत्याग्रह में जेल जा चुके डा. शिवपूजन राय यह अच्छी तरह जानते थे कि आंदोलन में जनता की सक्रिय भागीदारी ही रणनीति की प्रभावशीलता, वैधता और उसकी सफलता का परिचायक हो सकती है। छात्र जीवन की राजनीति और क्रांतिकारियों से निजी संपर्क को उन्होंने स्थानीय आंदोलन को सक्रिय और जीवंत बनाने में प्रयोग किया।
17 अगस्त को डा. राय के नेतृत्व में कुंडेसर, हरिहरपुर आदि गांवों के नौजवानों की टोली ने टेलीफोन सेवा भंग करते हुए मुहम्मदाबाद की निचली अदालत और पोस्ट आफिस पर कब्जा कर वहां राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया। टोली के सदस्य लगे हाथ तहसील पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की मांग कर रहे थे, जिस पर डा. राय ने कहा, ‘हमारा कदम जनता को पुलिस और सेना के भय से मुक्त करना है। अत: निश्चित योजना के तहत कल 18 अगस्त को ही झंडा फहराया जाएगा।’
अहिंसा के परम अनुयायी
अगली सुबह डा. राय के नेतृत्व में विशाल समूह भारत माता और महात्मा गांधी का जयगान करता हुआ तहसील पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने निकला। रास्ते में पड़ने वाले गांवों के लोग इस जुलूस का हिस्सा बनते गए। डा. राय ने अपनी योजना समझाते हुए कहा, ‘हो सकता है तहसील भवन पर झंडा फहराने को बढ़ने पर मैं गोलियों से भून दिया जाऊं, पर मेरे कंधे से कंधा मिलाकर मातृभूमि की बलिवेदी की तरफ बढ़ने वाले जवानों, तब तक आगे बढ़ते रहना, जब तक तहसील भवन पर ध्वज फहर न जाए। याद रखें यदि पुलिसकर्मियों पर हमारा कोई भी जवान मिट्टी का छोटा से छोटा टुकड़ा भी फेंकेगा तो वह टुकड़ा हमारे कलेजे पर चोट करेगा।’ यह अहिंसा का चरम बिंदु था।
बहा देश का युवा रक्त
इसी बीच विश्वनाथ उपाध्याय ने सूचना दी कि तहसील प्रांगण में पुलिस बल की संख्या 30 है। वहीं तय हुआ कि दो-दो जवान एक-एक सशस्त्र पुलिसकर्मी को पकड़ लेंगे, जिससे वे गोली चलाने में सफल नहीं होंगे और सामने से आ रहे विशाल जुलूस का नेतृत्व कर रहे डा. शिवपूजन राय तहसील भवन पर ध्वजारोहण कर देंगे। विश्वनाथ उपाध्याय, दादा तिलेश्वर राय के नेतृत्व में 70 जवानों का चयन हुआ। अहरौली में जुलूस दो भागों में बंट गया और चल पड़ा। बाजार बंद था, लेकिन सड़क के दोनों तरफ लोग इस गौरवपूर्ण नजारे को देख रहे थे।
तहसील के निकट पहुंचते ही हृदय नारायण राय से संकेत मिलते ही ऋषेश्वर राय ने दीवार फांदकर दो सिपाहियों की बंदूकें पकड़ लीं। इसके बाद 20 अन्य युवक परिसर में प्रवेश कर गए। बंदूकों की छीना-झपटी में नारायण राय, बंशनारायण राय, वशिष्ठ राय और राजा राय घटनास्थल पर ही बलिदान हो गए। रामबदन उपाध्याय और सीताराम राय मरणासन्न अवस्था तक पहुंच गए। रामाधार राय, कृपाशंकर राय, रामनरेश यादव और सामू दादा, जो कम घायल थे, साथियों संग प्रांगण से बाहर चले गए।
जनता की बनी सरकार
डा. राय तहसील भवन के पीछे की स्थिति भांपकर झंडा लिए तहसील भवन की ओर बढ़े। तहसीलदार ने गोली मारने की धमकी दी तो डा. राय ने कहा, ‘तुम अपना काम करो, मैं अपना काम कर रहा हूं।’ ज्यों ही डा. राय ने कदम बढ़ाए, तहसीलदार ने तीन गोलियां उनके शरीर पर दाग दीं और शेरपुर का यह अप्रतिम योद्धा सदा-सदा के लिए मां की गोद में सो गया। यह बलिदान व्यर्थ नहीं गया। अगले तीन दिन तक गाजीपुर में ब्रिटिश सरकार का अता-पता नहीं था और वहां जनता की सरकार थी।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग में प्राध्यापक हैं)
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