स्वाधीनता और समाजसेवा को समर्पित रहा विंध्यवासिनी प्रसाद का जीवन, नाम से मिली सड़क को पहचान
गोरखपुर में विंध्यवासिनी पार्क और सड़क स्वतंत्रता सेनानी बाबू विंध्यवासिनी प्रसाद की याद दिलाते हैं। बिहार के सिवान में जन्मे उन्होंने गोरखपुर में स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने होमरूल लीग की स्थापना की असहयोग आंदोलन में भाग लिया और बाढ़ पीड़ितों की मदद की। महात्मा गांधी भी उनका सम्मान करते थे और उन्हें विंध्या बाबू के नाम से जानते थे।

विश्वविद्यालय चौराहे और पैडलेगंज को मोहद्दीपुर से जोड़ने वाली सड़क विंध्यवासिनी पार्क के जरिये जुड़ती है। इतना ही नहीं दोनों सड़कों को इसी पार्क से पहचान भी मिलती है। पार्क के बगल से निकली पतली सड़क दोनों सड़कों तक पहुंच आसान करती है। पहचान बनाने में सहयोग करती है।
यहां पर लोगों के मन में एक जिज्ञासा भी जरूर उठती है कि आखिर पार्क को नाम देने वाले और सड़क को पहचान देने वाले विंध्यवासिनी बाबू कौन हैं। आज जागरण इसी जिज्ञासा को शांत करने जा रहा है। बाबू विंन्ध्यवासिनी प्रसाद वर्मा के बारे में बताने जा रहा है।
मूल रूप से बिहार के सिवान जिले के रहने वाले बाबू विंध्यवासिनी प्रसाद ने गोरखपुर में रहकर न केवल स्वाधीनता आंदोलन में महती भूमिका निभाई बल्कि समाजसेवा के जरिये भी समूचे पूर्वांचल में पहचान बनाई। उनके पिता बाबू सरस्वती प्रसाद गोरखपुर के प्रतिष्ठित वकील थे।
विंध्यवासिनी प्रसाद का जन्म 1981 में गोरखपुर के निजामपुर में अपने नाना पाटेश्वरी प्रसाद वकील के घर और लालन-पालन पिता के अलहदादपुर स्थित आवास सरस्वती सदन में हुआ। 1909 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक के साथ बीए किया।
1913 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वकालत की परीक्षा पास करने के बाद गोरखपुर आकर वकालत करने लगे। सार्वजनिक सेवा की शुरुआत उन्होंने डा. राजेंद्र प्रसाद का साथ पाकर कोलकाता के प्रेसिडेंसी कालेज में अध्ययन के दौरान कर दी थी।
कलकत्ता के बिहारी क्लब और बिहार छात्र सम्मेलन के निर्वाचित सदस्य बने। गोरखपुर में वकालत शुरू करने के साथ उन्होंने 1916 में आपने होमरूल लीग की स्थापना की। इस काम में उन्हें शाकिर अली व अयोध्या दास बैरिस्टर का भी साथ मिला।
1918 से 1919 तक वह जिला कांग्रेस कमेटी के सभापति रहे। रौलट एक्ट के विरुद्ध हड़ताल कराई। 1920 में वह वकालत छोड़कर सक्रिय रूप से असहयोग आंदोलन से जुड़ गए।
1920 में जिला कांग्रेस कमेटी के मंत्री और युगांतर साप्ताहिक के संपादक रहे। उन्होंने रेल यूनियन का भी नेतृत्व किया, जिसके लिए उन्हें तत्कालीन अंग्रेज रेल अफसरों का अत्याचार भी झेलना पड़ा।
19 नवंबर 1921 में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की इलाहाबाद बैठक के दौरान बाबू विंध्यवासिनी प्रसाद गिरफ्तार कर लिए गए। 18 महीने का सश्रम कारावास मिला। 500 रुपये का जुर्माना भी लगा। जेल से छूटने के बाद 1926 से 1930 तक जिला कांग्रेस कमेटी के फिर सभापति रहे।
1929 में बांध टूटने से आई बाढ़ में उन्होंने बाबा राघवदास व भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार के साथ मिलकर बाढ़ पीड़ितों के लिए खूब काम किया। 1932 में विधानसभा सदस्य रहकर अंग्रेजी सरकार का विरोध किया। उसके बाद आठ दिसंबर 1943 को अंतिम सांस तक गोरखपुर नगर पालिका के चेयरमैन रहे।
तेज बहादुर सप्रू से मिली प्रशंसा
बाबू विंध्यवासिनी प्रसाद के पोते सती कुमार वर्मा बताते हैं कि एक केस को लड़ने के लिए उस समय देश के मशहूर बैरिस्टर तेज बहादुर सप्रू गोरखपुर आए और उन्होंने बतौर वकील विंध्यवासिनी प्रसाद को कोर्ट में बहस करते देखा तो प्रभावित हो गए।
सप्रू ने उन्हें हाई कोर्ट वकालत करने की सलाह दे डाली। सती बताते हैं कि 1930 में उनके दादाजी ने पहली बार कायस्थ सभा का गठन किया। सती यह भी बताते हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्होंने तत्कालीन राजकीय उद्यान में जनसभा की थी, इसलिए उद्यान को उनका नाम मिला।
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महात्मा गांधी के प्रिय थे विंध्यवासिनी बाबू
बाबू विंध्यवासिनी प्रसाद महात्मा गांधी के बहुत प्रिय थे। 1917 में महात्मा गांधी के चंपारन दौरे के दौरान बाबू विंध्यवासिनी प्रसाद उनके साथ रहे। इसका जिक्र डा. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक 'चंपारन में महात्मा गांधी' पुस्तक में किया है। महात्मा गांधी ने भी अपनी आत्मकथा में विंध्यवासिनी प्रसाद का जिक्र 'विंध्या बाबू' के नाम से किया है।
आठ फरवरी 1921 को जब महात्मा गांधी गोरखपुर आए तो वह इन्हीं के मेहमान रहे। 1929 में जब दूसरी बार महात्मा गांधी गोरखपुर आए तो उन्होंने मद्य निषेध कार्य किया और बाबू विंध्यवासिनी के साथ ही कई जिलों का दौरा किया।
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