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    SIR In UP: गोरखपुर शहर में ठिकाना बना चुके हैं अनजान चेहरे, संख्या 50 हजार से अधिक

    Updated: Sat, 06 Dec 2025 10:19 AM (IST)

    गोरखपुर शहर में अनजान चेहरों की संख्या 50 हजार से अधिक हो गई है, जहाँ स्थानीय लोगों ने अपनी खाली जमीनें किराए पर दे दी हैं। ये लोग झुग्गी-झोपड़ी बनाकर ...और पढ़ें

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    हार्बट बंधे पर स्थित इलाहीबाग में नगर निगम पम्प हाउस के पास झोपड़ी डालकर रहते लोग। जागरण

    जागरण संवाददाता, गोरखपुर। शहर में अनजान चेहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। स्थानीय लोगों ने अपनी खाली जमीनें इन्हें किराए पर देकर झुग्गी-झोपड़ी लगाने का अवसर दे दिया है। प्रति झुग्गी एक हजार से चार हजार रुपये तक किराया वसूला जा रहा है। अनुमान है कि शहर के विभिन्न हिस्सों में ऐसे 50 हजार से अधिक लोग रह रहे हैं।

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    इंद्रानगर में ही करीब छह हजार लोग अपने परिवारों के साथ बसे हुए हैं। इनका प्रमुख काम अलग-अलग मोहल्लों में कबाड़ बिनना है, जबकि कुछ लोग ठीकेदारों के माध्यम से निर्माण कार्यों में भी जुटे हुए हैं और वहीं अस्थायी ठिकाना भी बना लिया है। इन लोगों के नाम भी मतदाता सूची में दर्ज नहीं हैं। पहचान के तौर पर ये अधिकतर कोलकाता और असम के आधार कार्ड दिखाते हैं। शुक्रवार को जागरण की पड़ताल में ये सच्चाई सामने आई।

    हार्बर्ट बंधे किनारे बसे इन अनजान चेहरों में सबसे पहले मुंशी नाम का एक युवक आया। जो वहां रहते हुए और भी लोगों को यहां पर बुलाया और फिर राप्ती तट जाने वाले मार्ग पर अवैध बस्ती ही बसा दी। हालांंकि मुंशी इस समय आटो चला रहा है। लेकिन, उसके द्वारा बसाए गए लोग कबाड़ बिनने का काम कर रहे है।

    वहीं जिस जमीन में ये बसे है, उसके मालिक को प्रति झुग्गी के हिसाब से दो हजार रुपये महीने जाता है। इसी तरह हार्बर्ट बंधे के किनारे भी इनकी बस्ती थी। लेकिन, बंधे पर सड़क चौड़ीकरण की वजह से अब ये बंधे से और किनारे और राप्ती नदी किनारे बसे गांव के पास बसे है।

    ये झोपड़ी में रहने और खाली जमीन पर कबाड़ रखने के लिए प्रति परिवार चार हजार रुपये जमीन मालिक को देता है। राप्ती तट मार्ग पर रहने वाली एक महिला बताती है कि झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले सभी एक ही समुदाय के है और उनकी बोली-भाषा भी एक है। सुबह हाेते ही युवक ठेला लेकर तो दोपहर बाद महिलाएं बोरा लेकर निकलती है।

    इसके बाद देर रात तक ये कबाड़ लेकर वापस आते है। इस दौरान झुग्गी में रहने वाले एक युवक से बात की गई तो उसने अपना नाम समद बताया, लेकिन कहां का रहने वाला है और किसके साथ रहता है। इसके बारे में कुछ नहीं बोला।

    रामगढ़ताल के तारामंडल रोड पर जीडीए कार्यालय से पहले सड़क किनारे फुटपाथ पर भी इनका ठिकाना है। झोपड़ी डालकर ये अवैध रूप से रह तो रहे ही है, टीवी समेत अन्य बिजली उपकरण भी इनके पास है। शाम होते ही ये पड़ोस या अवैध रूप से कटिया लगाकर बिजली जलाते है।

    इसी क्रम में इंद्रानगर झुग्गी में रहने वाले एक युवक ने बातचीत में अपना नाम तो नहीं बताया, लेकिन उसने यह बताया कि इंद्रानगर में वह परिवार के साथ झुग्गी में रहता है। वहां पर उसके यहां के छह हजार लोग रहते है, जिसमें से कुछ कबाड़ बिनने तो कुछ मजदूरी समेत अन्य कार्य करते है। उसने बताया कि वह कई वर्षों से यहां पर रह रहा है। इसका किराया भी जमीन मालिक को दिया जाता है।

    महेवा बंधे के किनारे बागीचे में ठिकाना बनाए अनजान चेहरों को जमीन मालिक ने दे रखा है। वह जमीन और बिजली देने के बदले प्रति झुग्गी पांच हजार रुपये महीने लेता है। हालांकि जमीन मालिक खेतान का कहना है कि उसकी जमीन पर रहने वाले एक ही समुदाय के है और उनका आधार कोलकाता है। जो उसके और पुलिस के पास जमा है। इसी तरह से खोराबार-एम्स क्षेत्र के रामपुर भग्ता और सहारा स्टेट के गेट नंबर चार के पास एक विद्यालय में अनजान चेहरे वाले परिवार के साथ करीब 100 की संख्या में रहते है।

    रामपुर भग्ता के रहने वाले संजित बताते है कि ये विद्यालय एक चौधरी का है। विद्यालय नहीं चलने पर उन्होंने कबाड़ बिनने वाले दो अनजान चेहरे को भाड़े पर दे दिया। इसके बाद धीरे-धीरे यहां पर 100 लोग रहने के लिए आ गए। हर महीने ये लोग 50 से 60 हजार रुपये भाड़ा देते है।

    संजित का कहना है कि डेढ़ वर्ष पूर्व उनके मकान के बगल में गुप्ता की खाली जमीन पर भी ये रहते थे। गुप्ता ने टीनशेड बनवाकर इन्हें भाड़े पर दे रखा था। लेकिन, इनके विवाद से परेशान होकर थाने में शिकायत की गई। जिसके बाद पुलिस ने उन्हें भगाया। यहीं हाल शहर के अन्य जगहों का भी है।

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    आधार कार्ड न वोटर लिस्ट में है नाम
    शहर में रहने वाले इन अनजान चेहरों के पास गोरखपुर जिले की कोई आइडी नहीं है। वोटरलिस्ट में भी इनका नाम नहीं है। इनके पास मौजूद आइडी में सिर्फ आधार कार्ड है, जो कोलकाता का है या आसाम का। वहीं चौराहों पर कलम, गुड़ीया और वाहनों के सामान बेचने वाले खुद को राजस्थान का बताते है, लेकिन उनके पास कोई आइडी नहीं है। इन सभी को लाने वाला उनकी टीम का एक सदस्य है। जो खुद पहले आता है और ठिकाना मिलने के बाद धीरे-धीरे अन्य को बुलाकर बसाता है।

    आठ, 10 और 15 वर्ष से अधिक समय से रहने वाले इन लोगों की बोली-भाषा बंग्लादेशी जैसी होने से आसपास के लोग रोहिंग्या होने की आशंका जताते है। कई बार शिकायत भी कर चुके है। फिर भी स्थानीय प्रशासन इनका सत्यापन नहीं करता है। जबकि नियम कहता हैं कि बाहर से आए हर शख्स का सत्यापन होना चाहिए। मकान मालिक, ग्राम प्रधान और वार्ड स्तर पर इसकी जिम्मेदारी तय है।