SIR In UP: गोरखपुर के हर मोड़ व कोने पर झुग्गी-झोपड़ी, बोली और भाषा से रोहिंग्या की आशंका
गोरखपुर में अनजान लोगों का बसेरा बढ़ता जा रहा है, जिससे स्थानीय लोगों में डर का माहौल है। ये लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं और उनकी भाषा रोहिंग्या ...और पढ़ें

प्रशासन और स्थानीय पुलिस की चुप्पी से पैर पसार चुके है अनजान चेहरे। जागरण
जागरण संवाददाता, गोरखपुर। शहर के हर कोने और बाहरी इलाकों में अनजान चेहरों का डेरा है। कहीं सड़क किनारे फुटपाथ पर तो कहीं खाली जमीनों पर झुग्गी-झोपड़ी डालकर ये रह रहे है। इनके अलावा बाहरियों द्वारा ठेले और गाड़ियां खड़ी कर दवा बेचने का कारोबार चल रहा है। न इनकी पहचान है, न ही कोई वैध दस्तावेज। प्रशासन और स्थानीय पुलिस की चुप्पी इन अजनबियों को शहर के साथ ही ग्रामीण इलाके के प्रमुख चौराहा पर पैर पसारने का मौका दे दिया है।
शहर के राजघाट क्षेत्र में हार्बर्ट बंधे के किनारे, राप्ती तट जाने वाले मार्ग पर, अमरुतानी, महेवा बंधे के किनारे, ट्रांसपोर्टनगर-महेवा मार्ग के किनारे खाली जमीन और बागीचे में, रामगढ़ताल के तारामंडल रोड पर जीडीए कार्यालय से पहले सड़क किनारे, देवरिया बाइपास से पैडलेगंज मार्ग पर, खोराबार व एम्स क्षेत्र के एक विद्यालय में, कैंट क्षेत्र में रेलवे स्टेशन किनारे, शाहपुर में फातिमा हास्पिटल के बगल में, खजांची बांसफोड़ बाजार के बगल में, चिलुआताल में महेसरा ताल किनारे, घोसीपुरवा में, गोरखनाथ में जटाशंकर गुरुद्वारा के पीछे, चौरी चौरा के फुलवरिया चौराहे पर, करमहा ओवर ब्रिज के नीचे, गुलरिहा क्षेत्र में फोरलेन किनारे, नौसड़ से आगे लखनऊ फोरलेन पर समेत अन्य कई स्थलों पर झुग्गी-झोपड़ी में अनजान चेहरे रह रहे है। नाम-पता पूछने पर ये लोग बताने से कतराते हैं। लेकिन, जब आपस में बात करते है तो उनकी बोली-भाषा रोहांगिया होने की आशंका जताती है।
इनके अलावा शहर के अलग-अलग मार्गो पर दवा बेचने वाली वैन या तंबू भी दिखते हैं। माइक पर आवाज गूंजती है, हर बीमारी की गारंटी के साथ उपचार कराए। वहीं चौराहों पर कलम, पंखे और वाहनों के सामान बेचते हुए भी अनजान चेहरे दिखते है। उत्सुक लोग पास जाते हैं, लेकिन पहचान पूछने पर जवाब अधूरा रह जाता है।
यहीं हाल कैंपियरगंज, पिपराइच, गोला, उरुवा, बांसगांव, बड़हलगंज, गगहा, सहजनवां, खजनी क्षेत्र में भी खेतों और पुलिया किनारे डेरा डालकर ये लोग रह रहे हैं। ग्रामीण कहते हैं, बच्चों और महिलाओं में डर बना रहता है। किस जगह से आते हैं, कोई नहीं जानता। जबकि नियम कहता हैं कि बाहर से आए हर शख्स का सत्यापन होना चाहिए। मकान मालिक, ग्राम प्रधान और वार्ड स्तर पर इसकी जिम्मेदारी तय है। लेकिन, जिले में यह प्रक्रिया लगभग ठप है।
नतीजा यह कि अपराधियों को छिपने और शहर में घुलने-मिलने का पूरा मौका मिल रहा है। सेवानिवृत्त सीओ शिवपूजन सिंह यादव कहते है कि गोरखपुर की संवेदनशीलता को देखते हुए यह स्थिति बेहद खतरनाक है। बिना सत्यापन का बसेरा अपराध को न्योता है। प्रशासन को समय-समय पर अभियान चलाकर सत्यापन करना चाहिए, वरना बड़ी वारदातें सामने आ सकती हैं।
आसाम और कोलकाता दिखाते आधार, बोली बंग्लादेशी
इन अनजान चेहरों की बस्ती में जाने पर अगर कोई इनसे बातचीत करना चाहता है तो ये नहीं बोलते, आसपास के लोग जब इनसे आधारकार्ड मांगते है तो ये आसाम और कोलकाता के होने की बात कहते और आधार भी वहीं का दिखाते। लेकिन, जब कभी आपस में लड़ते-झगड़ते है तो बांग्लादेशी भाषा बोलते है। हार्बर्ट बंधे और राप्ती तट जाने वाले मार्ग पर रहने वाले लोगों का कहना है कि इनके बगल में कई वर्षों से दर्जनों की संख्या में झुग्गी-झोपड़ी बसी है। जहां अनजान चेहरे रहते है। ये क्या करते है, कहां के है, इसकी जानकारी उन्हें नहीं है। समय-समय पर नये चेहरे इन झुग्गियों में रहने के लिए आते रहते और पुराने लापता होते रहते है।
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कबाड़ बिनने के साथ सरकारी व्यवस्था में भी घुसे ये चेहरे
झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले ये अनजान चेहरे पहले कबाड़ बिनने के साथ अब सरकारी व्यवस्था में भी घुस चुके है। इन चेहरों में महिलाएं शहर के अलग-अलग मोहल्लों में घूमकर कबाड़ बिनते हुए दिखती है। वहीं युवक नगर निगम की तरफ से संचालित कुड़ा उठाने वाले वाहनों के साथ चल रहे है। इसके अलावा आयुष विश्वविद्यालय के निर्माण में भी दर्जनों की संख्या में अनजान चेहरे शामिल थे।
बोली-भाषा के आधार पर स्थानीय लोग उन्हें बंग्लादेशी कह रहे थे। इस दौरान ये विश्वविद्यालय परिसर में ही झोपड़ी डालकर भी रहने लगे थे। कुछ दिन पूर्व कुलपति ने सभी को बाहर निकलवाया है और झोपड़ियों को साफ करा दिया। ये सभी ठीकेदार के माध्यम से काम करते है।

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