पितृपक्ष : जीवित व्यक्ति भी करा सकता है अपना श्राद्ध
कोई जीवित व्यक्ति भी अपना श्राद्ध करा सकता है। भारतीय शास्त्र भी इसकी अनुमति देते हैं। शास्त्रों में इसके कई फायदे बताए गए हैं।
गोरखपुर, (जेएनएन)। भारतीय शास्त्र जीवित व्यक्ति को भी अपना श्राद्ध करने या कराने की अनुमति देते हैं। गीताप्रेस ने इसकी पुस्तक भी अलग से प्रकाशित की है। काफी दिन पहले अमेरिका से एक व्यक्ति पाटिल का गीताप्रेस में फोन आया था, उनकी संतान नहीं थी, वह जानना चाहते थे कि क्या जीवित व्यक्ति अपना श्राद्ध करा सकता है। गीताप्रेस ने उनकी शंका का समाधान करते हुए इसकी उन्हें पुस्तक भी भेजी। उन्होंने नासिक में अपना श्राद्ध कराया।
जिस व्यक्ति को कोई संतान नहीं होती है, वह इस बात से तनावग्रस्त रहता है कि उसका श्राद्ध कौन करेगा। इसलिए शास्त्रकारों ने जीवित व्यक्ति को अपना श्राद्ध करने की विधि प्रदान की है। यह श्राद्ध किसी भी माह के कृष्ण पक्ष की द्वादशी से लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तक पांच दिन में किया जाता है। जीवित श्राद्ध संबंधी बातें लिंग पुराण, आदि पुराण, आदित्य पुराण, बौधायन गृह्यशेष सूत्र, वीरमित्रोदय श्राद्ध प्रकाश, कृत्य कल्पतरु, हेमाद्रि आदि ग्रंथों में प्राप्त होती हैं। आचार्य शौनक के नाम से भी जीवित श्राद्ध की व्यवस्था प्राप्त होती है। शास्त्र यह भी आदेश देते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वयं श्राद्ध करने में सक्षम नहीं है तो प्रतिनिधि के द्वारा भी श्राद्ध करा सकता है।
सूतजी ने बताई थी इसकी विधि
ज्योतिषाचार्य आचार्य विवेक उपाध्याय बौधायन गृह्यसूत्र के अनुसार 'जीवता स्वार्थोद्देश्येन कर्तव्यं श्राद्धं जीवच्छ्राद्धमित्युच्यते' अर्थात जीवित अवस्था में स्वयं के कल्याण के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध जीवित श्राद्ध कहलाता है। लिंग पुराण के अनुसार ऋषियों के पूछने पर सूतजी ने इसकी विधि बताई थी। पर्वत पर, नदी तट पर, वन में या निवास स्थान में यह श्राद्ध किया जा सकता है। यह श्राद्ध कर लेने के बाद मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है।
नरक से मुक्त हो जाते हैं माता-पिता व पूर्वज
ज्योतिषाचार्य आचार्य पं. शरदचंद्र मिश्र के अनुसार लिंग पुराण के अनुसार यदि जीवित व्यक्ति ने श्राद्ध कर लिया है तो उसके माता-पिता व पूर्वज भी नरक से मुक्त हो जाते हैं। जीवित श्राद्ध की परंपरा अति प्राचीन है लेकिन अब यह लोक व्यवहार में यदा-कदा ही देखने को मिलती है। जबकि भारतीय शास्त्रकारों ने यह अद्भुत व्यवस्था दी है। यह ऐसे समय में और उपयोगी हो गई है जब बुजुर्गों के प्रति संतान द्वारा उपेक्षा की घटनाएं प्रकाश में आती रहती हैं। इस विधि को ब्रह्माजी ने सबसे पहले वसिष्ठ, भृगु व भागर्व ऋषि से कही थी।