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    गोरखपुर सबरंग: अंग्रेजों के लिए आतंक का पर्याय बन गए बाबू बंधु सिंह, नाम से मिलती सड़क को पहचान

    Updated: Sun, 03 Aug 2025 03:31 PM (IST)

    गोरखपुर में शहीद बंधु सिंह का नाम अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह में सम्मान से लिया जाता है। 1857 की क्रांति में उन्होंने अंग्रेजों को परेशान किया। अलीनगर में एक सड़क उनकी शहादत की कहानी कहती है जहाँ उन्हें फांसी दी गई थी। कहा जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों का खजाना लूटकर गरीबों में बांटा और अंग्रेजों के सिर काटकर देवी को चढ़ाते थे।

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    1857 की क्रांति के दौरान बंधु सिंह ने अंग्रेजों छक्के छुड़ा दिए। जागरण

    अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिन लोगों ने विद्रोह का बिगुल फूंका, उनमें शहीद बंधु सिंह का नाम सर्वाधिक सम्मान के साथ लिया जाता है। पहले स्वतंत्रता संग्राम यानी 1857 की क्रांति के दौरान बंधु सिंह ने अंग्रेजों छक्के छुड़ा दिए। चौरी चौरा क्षेत्र के डुमरी रियासत के बाबू बंधु सिंह युद्ध की अपनी अनूठी गुरिल्ला शैली के चलते अंग्रेजी हुकूमत के लिए आतंक का पर्याय बन गए थे।

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    वैसे तो बंधु सिंह का कार्य क्षेत्र आज का तरकुलहा देवी मंदिर रहा लेकिन शहर की एक सड़क उनकी बलिदानी की कहानी सुनाती है। उनके नाम से ही खुद की पहचान बनाती है। हम बात कर रहे हैं अलीनगर से चरणलाल चौराहे तक जाने वाली सड़क की, जिसके बीचो-बीच खड़े एक प्राचीन पेड़ पर बाबू बंधु सिंह देश की आजादी के लिए खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर झूल गए थे।

    ऐतिहासिक तथ्यों व जनश्रुतियों के अनुसार बंधु सिंह का जन्म डुमरी रियासत में बाबू शिव प्रसाद सिंह के घर एक मई 1833 में हुआ था। उस समय समूचा जनमानस अंग्रेजी राज के शोषण, बर्बरता और अन्याय के खिलाफ कसमसा रहा था।

    छह भाईयों में सबसे बड़े बंधु सिंह पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। जब बलिया में सैनिक मंगल पांडेय ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला तो बंधु सिंह भी सक्रिय हो गए। उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश में अकाल पड़ा हुआ था तो बंधु सिंह ने अपने सहयोगियों के साथ अंग्रेजों का खजाना लूटकर उसे पीड़ितों में बांट दिया।

    उसके बाद तो वह अंग्रेजों के आंखों की किरकिरी बन गए। जब बंधु सिंह ने जिला कलेक्टर को मारकर गोरखपुर पर अपना शासन कायम कर लिया और घाघरा व गंडक के नदी मार्ग पर कब्जा कर अंग्रेजों का अवागमन बाधित कर दिया तो हुकूमत ने नेपाल के राजा से मदद मांगी।

    राजा ने अपने प्रधान सेनापति पहलवान सिंह को फौज के साथ भेजा। भीषण संघर्ष हुआ पहलवान सिंह मारा गया और बंधु सिंह को जंगलों में शरण लेनी पड़ी। उसके बाद अंग्रेजों ने डुमरी रियासत के खिलाफ तीन तरफ से हमले की योजना बनाई।

    आजमगढ़ से अंग्रेजी फौज आई तो मोतीराम के दुबियारी पुल के पास बंधु सिंह के भाइयों करिया सिंह, हम्मन सिंह, तेजई सिंह और फतेह सिंह ने कड़ा मुकाबल किया पर वह मारे गए। अंग्रेजों ने बंधु सिंह की हवेली में आग लगा दी और उनकी रियासत मुखबिर को दे दी। उसके बाद बंधु सिंह जंगलों में छिपकर रहने लगे और अपनी गुरिल्ला पद्धति के युद्ध से अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया।

    देवी को चढ़ाते रहे अंग्रेजों का सिर

    जनश्रुतियों के अनुसार बंधु सिंह अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतारते और उनके सिर को कलम कर देवी को चढ़ाते। आज के तरकुलहा देवी स्थान पर उन दिनों एक तरकुल का पेड़ था और उसके नीचे देवी की पिंडरी रखी थी। यह क्रम बढ़ा तो अंग्रेजों ने घबराकर कूटनीति से बंधु सिंह को गिरफ्तार कर लिया और 12 अगस्त 1958 को गोरखपुर के अलीनगर चौराहे पर मौजूद बरगद के पेड़ पर उन्हें फांसी दे दी।

    सात पर टूट गया था फांसी का फंदा

    जनश्रुति यह भी है कि जब अंग्रेजों ने बंधु सिंह को फांसी पर लटकाना शुरू किया तो देवी मां की प्रभाव से सात बार फंदा टूट गया। आठवीं बार बंधु सिंह ने अपने गले में अपने हाथों से फंदा डालकर देवी मां से मौत मांग ली।

    इधर बंधु सिंह को फांसी दी गई, उधर उनके आराध्य देवी की पिंडी पर मौजूद तरकुल के पेड़ का एक हिस्सा टूटकर गिर गया और उसमें खून की धारा बहने लगी। खून इतना था कि पास के नाले का पानी लाल हो गया। इस घटना से आश्चर्यचकित लोगों ने उस अदृश्य शक्ति का नाम तरकुलहा देवी रख दिया। उसके बाद तो वह स्थल क्रांतिकारी के लिए ऊर्जा का केंद्र बन गया।

    मंदिर में अभय ज्वाला और बंधु सिंह की याद दिलाते सात ताड़ के पेड़ आज भी मौजूद हैं। सरकार ने उस स्थल पर बंधु सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक स्मारक भी बना दिया है। तरकुलहा देवी को भी सजा दिया है।