1861 में पड़ी थी विधान परिषद गठन की नींव
गोरखपुर: उत्तर प्रदेश में विधान परिषद का वर्तमान स्वरूप भले ही देश की आजादी के बाद अस्तित्व में आया
गोरखपुर: उत्तर प्रदेश में विधान परिषद का वर्तमान स्वरूप भले ही देश की आजादी के बाद अस्तित्व में आया लेकिन इसकी नींव 1861 में पड़ गई थी। इंडियन कौंसिल अधिनियिम 1861 इसका आधार था। इस अधिनियम में तत्कालीन बंबई, मद्रास, कलकत्ता, नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज एंड अवध (वर्तमान उत्तर प्रदेश) तथा पंजाब में विधान परिषदों की स्थापना के लिए प्रावधान किया गया था। सात साल बाद सन् 1868 में उपराज्यपाल विलियम म्योर ने नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज एंड अवध में भी एक विधान परिषद गठन करने के लिए भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल एंड सेक्रेटरी आफ स्टेट को पत्र लिखकर आग्रह किया लेकिन उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। अगली पहल 1885 में तत्कालीन राज्यपाल अल्फ्रेड लायल ने की। 25 वर्ष बाद उनके अनुरोध पर भारत सरकार ने सेक्रेटरी आफ स्टेट को पत्र लिखकर बताया कि अवध की जनसंख्या मद्रास या बंबई प्रेसीडेंसी से भी अधिक है, अत: यहां विधान परिषद की स्थापना अत्यंत जरूरी है। उनके आग्रह का नतीजा यह हुआ है कि पांच जनवरी 1887 को प्रांत के पहले विधान परिषद का स्वरूप सामने आया।
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इलाहाबाद में हुई थी पहली बैठक
विधान परिषद की पहली बैठक 8 जनवरी 1887 को इलाहाबाद में हुई थी। पहली बैठक के समय विधान परिषद की सदस्य संख्या नौ थी और उसका कार्यकाल दो वर्ष था। 1892 में ब्रिटिश संसद ने भारत में विधान परिषदों के सुधार के लिए जो इंडियन कौंसिल अधिनियम लागू किया उसके तहत निर्वाचन के लिए सदस्यों के नामांकन का प्रावधान किया गया। इसमें उत्तर पश्चिम प्रांत व अवध की विधान परिषद के लिए 15 सदस्यों का प्रावधान था। इनमें से सात राज्यपाल द्वारा नामित होते थे। आठ ऐसे सदस्य थे जिन्हें पहले विभिन्न संस्थाएं निर्वाचित करती थीं और उसके बाद जब राज्यपाल की मुहर लग जाती थी, तब विधान परिषद सदस्य के रूप में अधिकृत हो जाते थे। 1902 के बाद संयुक्त प्रांत के रूप में जाना जाने वाला आगरा व अवध राज्य में इंडियन कौंसिल अधिनियम 1909 प्रभावी हो गया। इसमेंविधान परिषद सदस्यों की संख्या 46 हो गई। इनमें 20 सरकारी तथा 26 गैर सरकारी सदस्य थे। इन 26 गैर सरकारी सदस्यों में 20 निर्वाचित एवं छह नामित सदस्य थे। 20 निर्वाचित सदस्यों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बड़ी नगर पालिकाओं, विभिन्न जिला परिषदों, जमींदारों, मुस्लिम समुदाय तथा अपर इंडिया चेंबर आफ कामर्स द्वारा निर्वाचित किए जाते थे। संयुक्त प्रांत की विधान परिषद के विकास में नई कड़ी गवर्नमेंट आफ इंडिया अधिनियम 1919 के जरिए जुड़ी। दरअसल यह अधिनियम 1915 का संशोधित रूप था। इसमें सदस्यों की संख्या बढ़कर 123 हो गई। इनमें 100 निर्वाचित व 23 सरकारी सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होते थे। निर्वाचित सदस्यों में 60 गैर मुस्लिमों द्वारा, 29 मुस्लिमों द्वारा, एक यूरोपियनों द्वारा, 6 जमींदारों द्वारा, तीन व्यापारिक संगठनों द्वारा व एक इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा निर्वाचित किए जाते थे। इस प्रकार लगभग 50 फीसद सदस्य विभिन्न प्रकार के निर्वाचन मंडलों द्वारा निर्वाचित किए जाते थे। पहली परिषद में राज्यपाल ने केवल 15 सदस्य ही नामित किए जिससे कुल 121 सदस्य ही रहे।
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द्विसदनीय विधान मंडल का गठन 1935 में
पहली बार संयुक्त प्रात में द्विसदनीय विधान मंडल का गठन गवर्नमेंट आफ इंडिया अधिनियम 1935 के तहत हुआ, जिसमे विधान परिषद द्वितीय सदन के तौर पर सामने आया। अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि प्रत्येक विधान परिषद एक स्थायी इकाई होगी जो भंग नहीं होगी लेकिन प्रत्येक तीसरे साल इसके एक तिहाई सदस्य सदस्यता से निवृत्त होते जाएंगे। इस सदन की सदस्य संख्या 60 निर्धारित की गई। इनमें सामान्य निर्वाचकों द्वारा 34, मुस्लिम निर्वाचकों द्वारा 17 एवं यूरोपियन निर्वाचकों द्वारा एक सदस्य निर्वाचित होते थे। 8 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होते थे। वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्यों की संख्या सौ है। उत्तराखंड के गठन से पहले 108 थी।
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