बिन गीत विश्व है केवल मरघट के समान : नीरज
पदमश्री गोपालदास नीरज से विशेष बातचीत
क्षितिज कुमार पांडेय, जागरण संवाददाता, गोरखपुर :
कवि सम्मेलन का मंच हो या आकाशवाणी- दूरदर्शन का स्टूडियो या फिर फिल्मी गानें, गोपाल दास नीरज ऐसे कुछ कवियों में हैं, जिन्हें लोग आज भी उतने ही चाव से सुनते हैं, जितने चाव से साठ साल पहले सुनते थे। उनके सैकड़ों गीत लोगों की जुबान पर आज भी हैं।
कारवा गुजर गया गुबार देखते रहे .., कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है.। इनके रचयिता पद्यश्री नीरज की रचनाओं में जीवन का हर रंग देखने को मिलता है। उनकी कविता में पीड़ा की गहन अनुभूति है तो प्रेम की सजल अभिव्यक्ति भी और प्रखर राष्ट्रवाद भी। एक कार्यक्रम के सिलसिले में गोरखपुर आए 90 वर्षीय नीरज जी से जागरण ने बातचीत की। पेश हैं उसके प्रमुख अंश ..
जागरण- कविता के क्षेत्र में लंबे समय से नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। नई कविता के विषय में आपकी क्या राय है?
नीरज -आरोह जन्म,अवरोह मरण,लय-ताल सृष्टि
मूछनामीण सुखदुख विधान,
गीत ही आदि,गीत ही मध्य गीत ही अंत
बिन गीत विश्व है केवल मरघट के समान
लय किसी भी कविता की आत्मा होती है। नई कविता में इसका अभाव है। मेरा मानना है कि कविताएं बिना लय के लोकप्रिय हो ही नहीं सकतीं। पहले की कविताएं लोगों की जुबान पर चढ जाती थीं, उनमें लयबद्धता थी। कविता हमेशा होठों से होंठ पर चली है। तुलसी, सूर, कबीर, मीरा का काव्य इसका उदाहरण है। जो कविता होंठ पर बैठ जाएगी, वही जीवित रहेगी। और होंठ पर तभी बैठेगी जब पद्यात्मक होगी, छन्दबद्ध होगी।
जागरण- तो क्या छन्दमुक्त कविता कविता नहीं है?
नीरज -वह कविता बौद्धिक कविता हो सकती है, लेकिन वह जनसामान्य की कविता नहीं बन सकती। लय जरूरी है। लय तो हमारे जीवन में है, हमारे शरीर में है। हमारा हृदय एक लय में धड़क रहा है, शिराओं में रक्त एक लय में प्रवाहित हो रहा है, रात-दिन, मौसम सब एक लय में आते हैं। इसीलिए लयबद्ध कविता का आपके व्यक्तित्व से मेल बैठता है।
जागरण -कविता ने आपको आज यहा तक पहुंचाया। वह आपकी पथ की साथी रही। आपकी दृष्टि में कविता क्या है?
नीरज -कविता एक साधना है। कवि बनने के लिए व्यक्ति को अध्ययन, चिंतन और मनन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अध्ययन व्यक्ति को परिचित कराता है, फिर उस पर चिंतन मनन होता है। कविता आत्मसाक्षात्कार है। एक दृष्टिकोण है। हर कविता के साथ कवि का रूपान्तर होता है। वहा गोपाल मर जाता है, नीरज शेष रह जाता है।
जागरण-इन दिनों कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ में सस्तेपन का आरोप लगता रहा है आप का क्या मानना है?
नीरज - अब न वो दर्द, न दिल, न वो दीवाने रहे
अब न वो साज,न सोज, न वो गाने रहे
साकी तू यहां किसके लिए अब भी बैठा है
अब न वो जाम,न मय न वो पैमाने रहे
पहले कवि सम्मेलन विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और पढ़े-लिखे लोगों के बीच होते थे। धीरे-धीरे आपसी साहित्यिक गुटबाजी के चलते कवि सम्मेलन प्रदर्शनी- मेलों में पहुंच गए। नवधनाढ्य इसे क्लबों में ले गए। इस प्रकार मंच पर निरन्तर कविता का ह्रास होता गया, कविता के नाम पर चुटकलेबाजी हो रही है। इसके साथ अश्लीलता भी आती गई। यह पतनशील युग है। यह काल वहा से शुरू हुआ था जब मनुष्य मनुष्य को खा लेता था। कालचक्त्र घूमकर वहीं पहुंच गया है। मनुष्य मनुष्य को खाने लगा है। सभी मूल्य पतित हो रहे हैं, ज्ञान पतित हुआ, कला पतित हुई, राजनीति भी पतित हुई।
जागरण - आप प्रेम, करुणा, पीड़ा के साथ-साथ विद्रोह के भी कवि माने जाते हैं। इनकी व्याख्या आप किस तरह करेंगे?
नीरज- ये सब तो जीवन के अनुभव हैं और इन सबने मुझे माजा है. बचपन से ही जो पीड़ा और अकेलपन मैंने भोगा, वही मेरी रचनाओं में आया। पीड़ा और अकेलेपन ने कभी तो मुझमें करुणा उपजाई और कभी गहरे तक विद्रोह से भी भर दिया। जीवन भर प्रेम की तलाश में भटकता रहा। प्रेम में विफलता मिली तो आध्यात्म की ओर गया। स्वामी मुक्तानंद से लेकर आचार्य रजनीश तक के संपर्क में रहा।
जागरण- युवा रचनाकारों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?
नीरज - लेखनी अश्रु की स्याही में डुबाकर लिखो
दर्द को प्यार से सिरहाने बिठाकर लिखो
जिंदगी कमरों-किताबों में नहीं मिलती
धूप में जाओ,पसीने में नहाकर लिखो।।
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