Fatehpur Temple-Tomb Case: मकबरे की तरफ से पैरवी कर रहे वकील का दावा, 326 साल पहले बनीं थी पहली मजार; अब भी मौजूद
Fatehpur Temple-Tomb Case फतेहपुर के आबूनगर रेडइया में मकबरे को लेकर विवाद गहराया है। अधिवक्ता मोहम्मद आसिफ ने मकबरे का पक्ष रखते हुए दावा किया कि पहली मजार 326 साल पहले बनी थी। उन्होंने ऐतिहासिक दस्तावेजों का हवाला देते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय धरोहर है। इतिहासकार सतीश द्विवेदी ने कहा कि केवल स्थापत्य शैली से मंदिर या मकबरा तय नहीं किया जा सकता।

जागरण संवाददाका, फतेहपुर। आबूनगर रेडइया के जिस मकबरे को लेकर तीन दिनों से विवाद छिड़ा है,पहली बार इसमें मकबरे की तरफ से पैरवी कर रहे अधिवक्ता मोहम्मद आसिफ ने पक्ष रखा है। दावा किया है कि मकबरे में पहली मजार 326 साल पहले बनीं थी जो आज भी है।
तर्क दिया कि औरंगजेब के चकलेदार रहे अबु समद की मृत्यु 1699 में हुई थी, तब उन्हें इस मकबरे की भूमि में दफन किया गया। तभी इसे बनाया गया था, बाद में वर्ष 1704 में अबू समद के बेटे अबू वकार की मृत्यु हो गयी, जिनकी मजार भी पिता के बगल में ही बनाई गयी थी। आज भी दोनों मजारें मकबरें के अंदर बनीं हुई बाद में इसमें कई एक मजारें बन गयीं।
मो. आसिफ, अधिवक्ता मकबरा पक्ष। जागरण
राजस्व दस्तावेज के इतर हटकर देखा जाए तो ऐतिहासिक दस्तावेज में इस बात का उल्लेख भी है। बताया कि वर्ष 1906 में एचआर नेविल ने फतेहपुर-ए गजेटियर लिखा था, जोकि गजेटियर यूनाइटेड प्रोविंसेस आफ आगरा एंड अवध के आधिकारिक जिला गजेटियर का भाग था।
आजादी के बाद सूचीबद्ध हुई राष्ट्रीय धरोहर
-अधिवक्ता आसिफ बताते हैं कि जब देश आजाद हुआ तो ऐतिहासिक इमारतों को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में सूचीबद्ध किया गया, जिसका प्रमाण 2012 की खतौनी में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यदि यह राष्ट्रीय संपत्ति घोषित न होती तो सिविल जज सीनियर के फैसले के बाद बनीं खतौनी में इसे राष्ट्रीय संपत्ति न लिखा जाता।
स्थापत्य शैली नहीं हो सकती आधार: सतीश
इतिहासकार सतीश द्विवेदी बताते हैं कि आबूनगर की विवादित इमारत मकबरा है, सिर्फ स्थापत्य शैली को देखकर मंदिर व मकबरा नहीं कहा जा सकता है। शासन भले ही मुगलों का था लेकिन यह रोक कहीं नहीं थी कि कोई विशेष प्रकार की कलाकृति नहीं बनाई जाएगी और न ही यह था कि एक ही डिजाइन व कलाकृति पर मकबरा निर्मित होंगे।
जमीनी खेल की उठ रहीं आवाजें
तीन दिन से छाए मकबरा-मंदिर विवाद को लेकर तीन दिनों से यह चर्चा तेज हैं कि पूरा प्रकरण सिर्फ मकबरे के पास मौजूद 11 बीघे जमीन के लिए है, चूंकि मकबरा जब 2012 में दर्ज हुआ उसी समय असोथर के रामनरेश का नाम संपूर्ण भाग से खारिज कर दिया गया। इस प्रकार मकबरा भले ही साढ़े सात बिस्वा में बना है, लेकिन इसके आसपास की 11 बीघे जमीन भी वापस मकबरे के पास आ गयी। हालांकि इस जमीन पर 34 घर बन चुके हैं।
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