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    देश की विभिन्नता ही दर्शाती है सामाजिक समरसता

    By JagranEdited By:
    Updated: Thu, 07 Oct 2021 11:01 AM (IST)

    सामाजिक समरसता का अर्थ है सामाजिक समानता अर्थात जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गो एवं वर्णो के मध्य एकता स्थापित करना। समरसता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना।

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    देश की विभिन्नता ही दर्शाती है सामाजिक समरसता

    जेएनएन, बिजनौर। सामाजिक समरसता का अर्थ है सामाजिक समानता, अर्थात जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गो एवं वर्णो के मध्य एकता स्थापित करना। समरसता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है, इस बात को हृदय से स्वीकार करना।

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    यदि देखा जाए तो पुरातन भारतीय संस्कृति में कभी भी किसी के साथ किसी भी तरह का भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया है। हमारे वेदों में भी जाति या वर्ण के आधार पर किसी भेदभाव का उल्लेख नहीं है। गुलामी के सैकड़ों वर्षो में आक्रमणकारियों द्वारा हमारे धार्मिक ग्रंथों में कुछ मिथ्या बातें जोड़ दी गई, जिससे उनमें कई विकृतियां आ गईं। इसके कारण आज भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई है। वेदों में जाति के आधार पर नहीं, बल्कि कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बतायी गयी है। जैसे कि ब्राह्मण का पुत्र वही कर्म करने से ब्राह्मण हुआ एवं शूद्र का पुत्र शूद्र क्योंकि, जो व्यक्ति जैसा कार्य करता था उसी अनुसार उसे नाम दिया गया। समय के साथ-साथ इन व्यवस्थाओं में अनेक विकृतियां आती गईं। इसके परिणामस्वरूप अनेक कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का जन्म हुआ। इन सबके कारण जातिगत भेदभाव, छूआछूत आदि की प्रवृति बढ़ती गई। इसी के चलते उच्च वर्ग एवं निम्न वर्ग का जन्म हुआ। यह भेदभाव इतना बढ़ गया कि उच्च वर्ग निम्न वर्ग के लोगों को हेय दृष्टि से देखने लगा और वह अधिकाधिक पिछड़ते गए। जाति-भेद का दोष ही है जिससे समरसता का अभाव उत्पन्न होता है। समाज के संगठन का पहला काम होता है कि समाजबंधुओं में अपने धर्म या जाति के प्रति एक अस्मिता को, स्व-अस्मिता को, गर्व की अनुभूति को जागृत रखें। मनुष्य समाज का एक भावनात्मक प्राणी है। भावना के कारण ही वह एक-दूसरे के साथ जुड़ते हैं और भावना के कारण ही एक-दूसरे से दूरी बनाते हैं। कोई भी राष्ट्र कितना भी छोटा क्यों न हो उसमें अनेक जाति और धर्म के लोग रहते हैं। इसके रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, मान्यता, विश्वास और मूल्यों में विभिन्नता होती है। वस्तु स्थिति यह है कि इन भिन्नताओं को समाप्त नहीं किया जा सकता। तब आवश्यकता होती है इन भिन्नताओं को स्वीकार करने की, राष्ट्रीय हित को सदैव सामने रखने की। इस स्थिति में ही भावनात्मक एवं सामाजिक एकता सम्भव है। सामाजिक एवं भावनात्मक एकता का अर्थ विभिन्नताओं की समाप्ति नहीं, इसका अर्थ है कि व्यक्तियों को मतभेद का अधिकार है और अपनी इस भिन्नता को, वह बिना किसी भय एवं तर्क के आधार पर अभिव्यक्त कर सकते हैं, लेकिन राष्ट्रीय एकता और आधारभूत निष्ठाओं को दृष्टि में रखते हुए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के अभाव में न तो चैन, सुखपूर्वक वह रह सकता है और न ही प्रगति कर सकता है। यही कारण है कि मनुष्य अपने समाज, समुदाय, परिवार के प्रति भावात्मक रूप से संबद्ध रहता है। परिवार, जाति अथवा धार्मिक संप्रदाय किसी को ले लीजिए इनके सदस्यों के मध्य भावात्मक एकता होती है जो इस समाज या समुदाय की एकता के रूप में जानी जाती है। इस भावात्मक एकता के अभाव में कोई भी समूह, समुदाय या समाज अधिक दिनों तक जीवित या अस्तित्व में नहीं रह सकता। किसी राष्ट्र के अस्तित्व के लिए यह परम आवश्यक है कि उसके सदस्यों में भावात्मक एकता हो। इसे ही दूसरे शब्दों में राष्ट्रीय एकता कहते हैं।