रामलीला में लक्ष्मण बनकर अपने अंदर के विद्रोही अभिनेता को मंच देते रहे कवि दुष्यंत
- भोपाल से कार

रामलीला में लक्ष्मण बनकर अपने अंदर के विद्रोही अभिनेता को मंच देते रहे कवि दुष्यंत
- भोपाल से कार चलाकर पैतृक गांव राजपुर नवादा में रामलीला मंचन करने पहुंचते थे
- कलम और अभिनय दोनों में लोकचेतना का विद्रोही स्वर बना रहा दुष्यंत की पहचान
अनुज कुमार शर्मा, बिजनौर : कल्पना करिए कि रामलीला में परशुराम-लक्ष्मण संवाद की ऊर्जा दर्शकों को रोमांचित कर रही हो। अचानक दर्शकों को ये पता चले कि यहां गौर वर्ण के धनुर्धारी लक्ष्मण कोई और नहीं, बल्कि महान कवि दुष्यंत कुमार हैं तो लोग आश्चर्य से उछल पड़ेंगे। जी हां, ऐसा ही दृश्य बिजनौर में 51 साल पहले तक रामलीला में चर्चा का केंद्र बनता रहा, जब लोकचेतना के महाकवि दुष्यंत कुमार लक्ष्मण की भूमिका निभाने भोपाल से कार चलाकर अपने गांव पहुंच जाया करते थे। साहित्य और हिंदी गजल के क्षितिज पर देदीप्यमान नक्षत्र बनकर चमकने वाले दुष्यंत कुमार का स्वर ही नहीं, बल्कि उनके अंदर भी एक विद्रोही अभिनेता पलता रहा।
अपनी कलम से सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का नया स्वर छेड़ने वाले कवि दुष्यंत अंदर से लक्ष्मण की तरह अनुशासित थे। दुष्यंत कुमार हर साल भोपाल से 10 दिन पहले गांव पहुंचकर रामलीला का रिहर्सल करते थे। कलाकारों का मनोबल बढ़ाते और अपनी काव्य रचना के बिंबों को खोजते हुए बड़ी निष्ठा से लक्ष्मण का चरित्र निभाने का आनंद लेते थे। नजीबाबाद तहसील के ग्राम राजपुर नवादा में एक सितंबर 1933 को जन्मे दुष्यंत कुमार को उनके बालसखा 92 वर्षीय सत्यकुमार त्यागी भुला नहीं पाते थे। उनके बचपन के इकलौते मित्र सत्यकुमार त्यागी का अभी 10 अगस्त 2025 को ही देहांत हुआ है। सत्य कुमार के पुत्र आलोक कुमार बताते हैं कि उनके पिताजी अपने मित्र दुष्यंत कुमार से जुड़ी तमाम कहानियां सुनाते थे। बाल्यकाल से ही दुष्यंत काव्य सृजन से जुड़े। साहित्य की धाराओं पर रचना की नाव खेते हुए वो अपने अंदर के अभिनेता में लक्ष्मण को रोपते रहे। मेघनाथ-लक्ष्मण संवाद के दौरान उनकी आवाज की गर्जना सुनकर पंडाल रोमांचित हो जाता था। अभिनय की संजीदगी ऐसी थी कि लक्ष्मण मूर्छा का जीवंत दृश्य देखकर लोग रोने लगते थे। जिस दिन उनका रोल नहीं होता था, उस दिन वे बच्चों के साथ टाट के बोरे पर बैठकर रामलीला देखते थे। प्रत्येक दिन रामलीला मंचन के समापन के बाद वो किसी न किसी कलाकर के घर अवश्य पहुंचते थे।
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साल 1974 तक लगातार गांव आते रहे दुष्यंत कुमार
प्रसिद्ध कवि और शायर दुष्यंत कुमार वर्ष 1974 तक लगातार अपने पैतृक गांव राजपुर नवादा आकर श्रीरामलीला मंचन में भाग लेते रहे। 30 दिसंबर 1975 को वे चिरनिंद्रा में विलीन हो गए। गांव के लोग आज भी उनकी इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। आपसी सामंजस्य से ग्रामीण वर्तमान में उसी रंगमंच पर रामलीला का मंचन करते हैं।
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अभी तक नहीं बन पाया संग्रहालय
शासन ने दुष्यंत के पैतृक गांव राजपुर नवादा में दुष्यंत स्मृति भव्य संग्रहालय, पुस्तकालय आदि के निर्माण के लिए 5.63 करोड़ रुपये का बजट दिया। दुष्यंत के पुत्र आलोक त्यागी और कर्नल अपूर्व त्यागी ने संग्रहालय व पुस्तकालय के लिए हवेली संस्कृति विभाग के नाम कर दिया, लेकिन अब तक कुछ नहीं बना।
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