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    अपनी पौराणिक लिपि को भूलकर परिवर्तन की इबारत लिख रहे थारू

    By JagranEdited By:
    Updated: Tue, 15 Dec 2020 11:05 PM (IST)

    रहन-सहन के साथ बदल गईं प्राथमिकताएं दिख रही मुख्य धारा में आने की छटपटाहट

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    अपनी पौराणिक लिपि को भूलकर परिवर्तन की इबारत लिख रहे थारू

    संतोष श्रीवास्तव, बहराइच : परिवर्तन की नई इबारत लिख रहे जनजातीय थारू परिवार समय के साथ अपनी पौराणिक लिपि को भूल रहे हैं। वक्त के साथ आए बदलाव में इनकी वेशभूषा, खानपान और रहन-सहन ही नहीं बदला, बल्कि प्राथमिकताएं भी काफी कुछ बदल गई हैं। मुख्य धारा में शामिल होने को बेताब थारू युवा और युवतियां शैक्षिक और सामाजिक परिवर्तन का नया दौर शुरू कर चुके हैं। इसी परिवर्तन की आंधी में इनकी अपनी भाषा अब बीती बात बनकर रह गई है।

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    तराई के बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, लखीमपुर व महाराजगंज जिलों में थारुओं की बड़ी आबादी निवास करती है। अकेले बहराइच जिले में ही इन परिवारों की आबादी तकरीबन 15 हजार होगी। मिहींपुरवा ब्लॉक में फकीरपुरी बर्दिया, आंबा, विशुनापुर, रमपुरवा, मटेही, लोहरा, धर्मापुर, भैसाही, जोलिहा, भैसाही, बलई गांव जैसे थारू बाहुल्य गांव हैं। थारू परिवार समाज की मुख्यधारा से हटकर अपने मिजाज की अलग जिदगी बसर करते थे। सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले थारुओं का रहन-सहन बिल्कुल अलग होता है। तीज-त्योहार, नृत्य और पहनावा बिलकुल अलग होता था। इनकी भाषा भी सामान्य लोगों से बहुत भिन्न होती थी।

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    इनकी होती है अलग लिपि

    -थारुओं की अपनी खुद की लिपि होती थी। इसी लिपि में वह पढ़ने-लिखने के साथ वह संवाद भी करते थे। आज भी थारू लिपि पर आधारित पांडुलिपियां थारू जनजाति गांवों में बुजुर्गों के पास मौजूद हैं। बुजुर्गों के हाथ के लिखे थारू लिपि को आज की पीढ़ी के युवा न तो पढ़ पाते हैं और न समझ पाते हैं।

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    चेते सरकार तो जीवंत रहे लिपि

    -थारुओं के उत्थान पर काम कर रही देहात संस्था के जितेंद्र चतुर्वेदी कहते हैं कि थारू लिपि के संरक्षण में सरकार बेपरवाह हैं। किसी स्तर का शैक्षिक अथवा अनुसंधानगत प्रयास भी नहीं हो पाया है, जिससे पांडुलिपियों को सुरक्षित रखकर इस जनजातीय लिपि को जीवंत रखा जा सके।

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    ऐसे विलुप्त हो रही पांडु लिपि

    -फकीरपुरी के थारू जनजाति के कृष्णा कहते हैं कि थारू लिपि की इबारतों को लिखने वाले बुजुर्ग थारू जब दिवंगत होते हैं तो उनकी लिखी पांडुलिपियां भी चिता पर जला दी जाती हैं। इसी के चलते थारू लिपि धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।

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