मानव प्रगति में अहंकार सबसे बड़ी बाधा
घमंड मानव कि वह मनोदशा है जो उसे दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख कर देती है। प्राय
घमंड मानव कि वह मनोदशा है, जो उसे दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख कर देती है। प्राय: व्यक्ति अपने कर्तव्यों के कारण अथवा भाग्य उन्नति को प्राप्त करता है, यशस्वी भी बन जाता है। अपनी उत्तरोत्तर उन्नति एवं उपलब्धि के बाद न जाने कहां से उसकी मनोवृत्ति कुछ इस प्रकार की हो जाती है कि वह यह भूल जाता है कि संसार में सब कुछ टिकाऊ नहीं है। स्वयं व्यक्ति भी स्थाई नहीं है। उसका इस लोक में भी कुछ नहीं। फिर भी वह अपने को सब कुछ मानकर सर्वत्र स्वयं की सत्ता को सिद्ध करने में लगा रहता है। अपने को सर्वश्रेष्ठ समझता है। उसे अपने द्वारा लिए गए सभी निर्णय एवं अपने किए कार्य ही उचित प्रतीत होने लगते हैं। अपने गलत कार्य भी सही नजर आते हैं। अपने समक्ष दूसरों को बिल्कुल ही महत्वहीन समझना उसकी प्रवृत्ति बन जाती है। एक प्रकार से यह कहा जाए कि उसे आंखों से तो सब कुछ दिखता है, लेकिन मन मस्तिष्क से वह पूर्णतया अंधा हो चुका होता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उचित-अनुचित विवेक की क्षमता से दूर घमंडी व्यक्ति की सामान्यतया यही सब पहचान होती है। कभी-कभी घमंडी व्यक्ति अपने घमंड की ऐसी पराकाष्ठा तक पहुंच जाता है कि वह बड़ों का अभिवादन भी करना भूल जाता है अथवा करता ही नहीं। उसे यह भी ध्यान नहीं रहता है कि यह घमंड उसे विनाश की ओर ले जाएगा। प्राचीन महाकाव्य महाभारत में हम पाते हैं कि धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन घमंड में चूर होने के कारण ही नारायण के स्वरूप को नहीं पहचान पाता है। परिणामस्वरूप पांडव की तुलना में अधिक सेनाओं वाला होते हुए तथा स्वयं व्यक्तिगत और पर अपने 99 भाईयों सहित होने पर भी युद्ध में विनाश को प्राप्त हो जाता है। महाभारत की इस घटना से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि घमंड व्यक्ति को पूर्णतया बर्बाद कर देने वाली मनोवृति है। हम देखते हैं कि घमंडी व्यक्तियों में प्राय: अलग-अलग रूप वाला घमंड व्याप्त होता है, जिसमें कहीं देखने को मिलता है कि रूप सौंदर्य का घमंड है तो कहीं धन संपत्ति के ऊपर व्यक्ति घमंड करने लगता है तो कहीं उसे अपनी पद-प्रतिष्ठा का घमंड हो जाता है, लेकिन यह सभी चीजें शाश्वत नहीं है और न ही मानव ही शाश्वत है फिर घमंड किस बात का। जैसा कि महाकवि तुलसीदास जी का कथन है 'प्रभुता पाए कोई मद नाही'। अर्थात धन-संपत्ति, रूप-रंग, बल-वैभव को प्राप्त होने पर भी मद अर्थात घमंड उचित नहीं। महामनीषी कवि तुलसीदास जी ने उपरोक्त उक्ति के माध्यम से ही मानव में अच्छी सोच विकसित करने एवं जीवन के लिए उचित मार्गदर्शन की प्रेरणा प्रदान की है। हमें अपनी संतानों को, जो हमारा अनुकरण करने वाले हैं उनको और हमसे प्रभावित जो भी हों उन सबमें अपने महा मनीषियों की तरह ही अच्छी सोच विकसित करने का कार्य करना चाहिए। उन्हें सर्वतोमुखी बनाने की कोशिश करनी चाहिए। हो सकता है की हमारा यह प्रयास 100 फीसद सफल न हो फिर भी कुछ असर तो रहेगा जो समाज के एक बड़े हिस्से को ना सही सीमित हिस्से को तो प्रभावित करेगा ही।
अपितु सर्वतोमुखी हो जाए तथा दूसरों के भी काम आए यदि व्यक्ति सर्वतो मुखी होकर दूसरों के प्रयोजन हेतु अपने को संलग्न करता है तो उसे घमंड जैसी मनोवृति स्पर्श भी नहीं कर सकती। हमें अपनी संतानों में यह भी संस्कार देने होंगे कि संसार में कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है। अपने अपने स्थान पर सबका बराबर का महत्व होता है। अपनी असंतुलित मनोवृति के कारण ही कोई अपने से कमजोर वर्ग की क्षमता को अपनी क्षमता से कम आंकना मानव की सबसे बड़ी भूल है। बाल्यकाल में प्राय: हर बालक के सामने पढ़ने के लिए यह कथा आती है कि शिकारी के जाल में फंसे हुए सिंह को एक छोटे से चूहे की मदद से ही छुटकारा मिलता है, फिर हमारा वह संस्कार कहां गया। इसलिए हमें ऐसी सोच को विकसित करना है जिससे समाज को एक नई दिशा मिले, कोई अपने को प्रभावशाली और दूसरे को कुछ ना समझे। समाज विकासोन्मुख हो और घमंड जैसी निकृष्ट मनोवृति का अंत हो जाए। अहंकार अथवा घमंड को हम कोई अन्य नाम देना चाहे तो इसे बीमारी अथवा दीमक की उपमा दे सकते है। जिस तरह बीमारी के रोगाणु दिनों दिन शरीर को क्षीण कर एक दिन समाप्त कर देते हैं।अहंकार भी उसी अनुरूप व्यक्ति को ऐसे नशे में मदहोश कर देता है। वह व्यक्ति को न केवल सच्चाई से परे एक कल्पना लोक में ले जाता हैं बल्कि जीवन के लिए असमायोजन करने वाली विकट स्थितियों को भी जन्म दे देता है। जीवन में दु:ख का पर्याय अहंकार ही है। व्यक्ति अपने अहम भाव के कारण सभी से स्वयं को श्रेष्ठ और हर क्षेत्र में ज्ञान, शक्ति से सम्पन्न मानने लगता है। वह इस नशे में इस हद तक डूबा रहता है कि दूसरों के ज्ञान, अनुभव, सलाह का उपयोग करने की कभी जरूरत ही नहीं समझता है। संसार में अनगिनत जीव हैं, उनमें से सबसे कमजोर जीव में भी एक जबर्दस्त खूबी होती है, वह है अनुकरण, जिसके सहारे वह अपनी क्षमता में वृद्धि करता जाता है, लेकिन अहंकारी इंसान कभी किसी के अनुकरण को स्वीकार नहीं करता है। जहां अहंकार का वास होता है वहां नम्रता, बुद्धि, विवेक, चातुर्य कोई गुण विद्यमान नहीं होगा। घमंड जिस इंसान पर हावी होता है, वह सबसे पहला काम भी यही करता है कि अन्य गुणों का प्रवेश न हो, व्यर्थ के अहंभाव के कारण उसकी नजर में हमेशा सब लोग नीचे एवं निम्न स्तर के होते हैं। वह सदैव दूसरों की राह में बाधाएं उत्पन्न कर प्रसन्नता पाता है, औरों को गिराकर अपनी राहें बनाता है। अहंकारयुक्त इंसान को मानव जाति का सबसे तुच्छ प्राणी माना जाता है। वह अपने अहम भाव को बनाए रखने के लिए किसी पाप को करने से भी नहीं हिचकता है। व्यक्ति में स्व प्रशंसा से अहंभाव का जन्म होता हैं और स्वयं को सबसे सर्वोच्च मान लेने की स्थिति में यह अपने उत्कृष्ट रूप में दिखता है। दूसरों के अधिकारों की परवाह न करते हुए अतिक्रमण करना समेत कई तरह के मानसिक विकार भी अहंकार के कारण ही पनपते हैं।
--डा. साधना मौर्या,असिस्टेंट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, गया प्रसाद स्मारक राजकीय महिला पीजी कालेज अंबारी, आजमगढ़।
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