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    Ramlila 2020 : इतिहास को संजोए है प्रयागराज की रामलीला, सम्राट अकबर की आंखें भी छलछला गई थीं

    By Brijesh SrivastavaEdited By:
    Updated: Sun, 06 Sep 2020 03:56 PM (IST)

    Ramlila 2020 प्रयागराज की रामलीला को देखने मुगल सम्राट अकबर भी आते थे। एक बार सीता विदाई का मार्मिक सीन देख उनकी आंखें भर आई थीं। इसका जिक्र आइना-ए-अकबरी में है।

    Ramlila 2020 : इतिहास को संजोए है प्रयागराज की रामलीला, सम्राट अकबर की आंखें भी छलछला गई थीं

    प्रयागराज, जेएनएन। प्रयागराज की रामलीला भव्‍यता लिए हुए है। यहां की ऐतिहासिक रामलीला का दूर-दूर तक नाम था। इसे देखने के लिए हजारों की संख्‍या में लोग यहां अपने रिश्‍तेदारों व मित्रों के घर ठहरते थे। इतना ही नहीं इसकी भव्‍यता के सभी कायल थे। मुगलकाल से लेकर अंग्रेजों के शासन काल में भी रामलीला का मंचन होता था। अभी पिछले वर्ष तक भी शारदीय नवरात्र में रामलीला का मंचन होता रहा है। हालांकि इस बार रामलीला के मंचन पर कोरोना वायरस का असर दिखाई दे रहा है। फिलहाल हम आपको प्रयागराज की रामलीला के कुछ अनछुए पहलुओं को बताते हैं।

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    अकबर की आंखाें में आंसू आने का जिक्र आइना-ए-अकबरी में है

    श्रीपथरचट्टी की लीला 16वीं शताब्दी में शुरू हुई। सर्वप्रथम कमौरीनाथ महादेव मंदिर हीवेट रोड के पास मैदान में रामलीला होती थी। बताते हैं कि मुगल शासक अकबर भी रामलीला देखने जाते थे। एक बार सीता की विदाई का मार्मिक मंचन देखकर अकबर के आंसू छलक उठे थे। कमेटी के प्रवक्ता लल्लूलाल गुप्त सौरभ बताते हैं कि इसका जिक्र आइना-ए-अकबरी में है। फिर 1837 में शहर के मध्य भाग में लीला मंचन का निर्णय लिया गया। उस समय चारों ओर पत्थर थे, जिसमें रामलीला का मंचन होता था। यहां की रामलीला इतनी प्रसिद्ध हुई कि मोहल्ले का नाम रामबाग रख दिया गया और रामलीला कमेटी श्रीपथरचट्टी के नाम से बनी। कमेटी 1999 से ध्वनि-प्रकाश के माध्यम से मंचन करा रही है।

    श्रृंगारिया समुदाय ने शुरू कराई थी कटरा की रामलीला

    श्रीकटरा रामलीला कमेटी की रामलीला में प्राचीनता व आधुनिकता का दर्शन होता है। देश की ये इकलौती कमेटी जो रावण को आदर से देखती है। पितृपक्ष की एकादशी को रावण की शोभायात्रा शानो-शौकत से निकाली जाती है। कमेटी के महामंत्री गोपालबाबू जायसवाल बताते हैं कि 1857 में भारद्वाज आश्रम पर रहने वाले नाथ सम्प्रदाय के श्रृंगारिया (श्रृंगार करने वाले) समुदाय के लोगों ने लीला की शुरुआत की। राम, लक्ष्मण व अन्य पात्रों को श्रृंगारिया परिवार के लोग कंधे पर बैठाकर पुलिस लाइन के पास स्थित मैदान तक ले जाते थे। वहीं रामलीला का मंचन होता था। फिर 1924 में अंग्रेजों ने रामलीला मंचन पर रोक लगा दिया, परंतु 1930 से स्थानीय लोगों के प्रयास से रामलीला पुन: शुरू हुई।

    बाबा हाथीराम के कंधे पर निकलते थे राम-लखन

    महंत बाबा हाथीराम पजावा रामलीला कमेटी की रामलीला 1801 से मंचित की जा रही है। शाहगंज राम मंदिर के तत्कालीन महंत बाबा हाथीराम ने लीला की शुरुआत की। वह मंदिर से राम, लक्ष्मण और हनुमान जी को कंधे में बैठाकर अतरसुइया स्थित लीला मैदान तक लाते थे। बाबा के स्वर्गवास के बाद उनके नाम से कमेटी का गठन किया गया।

    अद्भुत है मां काली प्राकट्य

    दारागंज की रामलीला का प्रख्यात मां काली स्वांग हर किसी को रोमांचित करता रहा है। संगमनगरी की राम बारात, हनुमान दल के साथ काली प्राकट्य विश्व प्रसिद्ध है। प्रचार मंत्री धर्मराज पांडेय बताते हैं कि दारागंज का हनुमान दल का ज्ञात इतिहास 1913-14 से निकल रहा है। इसे स्व. शेषनारायण पाधा, ठाकुर प्रसाद वैद्य, राय राधारमण, गणेश प्रसाद राय, मुरलीधर पंडा, बचई महाराज, महंत बालकपुरी ने शुरू किया। सन 1924-25 में हिंदू-मुस्लिम दंगे के कारण रामलीला को स्थगित थी। इसके बाद 1936 में रामलीला पुन: शुरू हुई।