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    पूजा करने से पहले क्यों करते हैं आचमन, जानिए महत्व और सही विधान

    By Tanu GuptaEdited By:
    Updated: Sun, 18 Apr 2021 04:55 PM (IST)

    शास्त्रों में आचमन ग्रहण करने की कई विधियां बताई गई हैं। किसी भी पूजा में आचमन करना सर्वथा आवश्यक माना गया है ऐसा ना करने से पूजा का फल आधा माना जाता है वहीं ऐसा करने पर भक्तों को भगवान की दोगुनी कृपा प्राप्त होती है।

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    शास्त्रों में आचमन ग्रहण करने की कई विधियां बताई गई हैं।

    आगरा, जागरण संवाददाता। आम दिनाें में पूजा करने से पहले हाथ में जल लेकर आचमन करवाया जाता है। बचपन से इस विधि को हम सभी करते आ रहे हैं लेकिन इसके महत्व के बारे में कम ही लोग जानते हैं। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जय जोशी के अनुसार आचमन का अर्थ होता है पवित्र जल ग्रहण करते हुए आंतरिक रूप से मन और हृदय की शुद्धि। पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। 

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    शास्त्रों में आचमन ग्रहण करने की कई विधियां बताई गई हैं। किसी भी पूजा में आचमन करना सर्वथा आवश्यक माना गया है, ऐसा ना करने से पूजा का फल आधा माना जाता है वहीं ऐसा करने पर भक्तों को भगवान की दोगुनी कृपा प्राप्त होती है।

     

    इस तरह करें आचमन

    पूजा से पूर्व तांबे के पात्र में गंगाजल या पीने योग्य साफ-शुद्ध जल लेकर उसमें तुलसी की कुछ पत्तियां डालकर पूजा स्थल पर रखा जाता है और पूजा शुरु होने से पूर्व आचमनी (तांबे का छोटा चम्मच जिससे जल निकाला जाता है) से हाथों पर थोड़ी मात्रा में तीन बार यह जल लेकर अपने ईष्टदेव, सभी देवतागण तथा नवग्रहों का ध्यान करते हुए उसे ग्रहण किया जाना चाहिए। यह जल आचमन का जल कहलाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है। जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-

    ॐ केशवाय नम:

    ॐ नाराणाय नम:

    ॐ माधवाय नम:

    ॐ हृषीकेशाय नम:, इस मंत्र के द्वारा अंगूठे से मुख पोछ लें 

    ॐ गोविंदाय नमः यह मंत्र बोलकर हाथ धो लें 

    उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।

    हथेली में हैं तीर्थ

    आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं-

    1. देवतीर्थ

    2. पितृतीर्थ

    3. ब्रह्मातीर्थ

    4. प्रजापत्यतीर्थ

    5. सौम्यतीर्थ

    कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।

    आचमन और दिशाएं

    आचमन करते हुए दिशाओं का ध्यान रखना बेहद आवश्यक है। आचमन करते हुए आपका मुख सदैव ही उत्तर, ईशान या पूर्व दिशा की ओर होना चाहिए। अन्य दिशाओं की ओर मुख कर किया हुआ आचमन निरर्थक है और अपना उद्येश्य पूरा नहीं करता।

    आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि

    प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।

    यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।

    यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।

    पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को

    अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।

    मनुस्मृति में वर्णित आचमन के महत्व के अनुसार पूजा के अलावा दिन में कई बार कुछ विशेष क्रियाओं से पूर्व आचमन करने का विधान बताया गया है। इसमें नींद से जागने के बाद, भोजन से पूर्व, छींक आने के पश्चात, योग-ध्यान अथवा अध्ययन से पूर्व तथा अगर गलती से कभी असत्य वचन बोलें या कोई गलत कार्य हो जाए तो उसके पश्चात आचमन द्वारा शुद्धि अवश्य की जानी चाहिए।