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    जलवायु परिवर्तन का खतरा: ग्लेशियरों में बर्फ न होने से 2050 के बाद घटता जाएगा पानी, सूखने लगेंगी नदियां

    Updated: Tue, 27 May 2025 09:47 PM (IST)

    बढ़ती गर्मी और जलवायु परिवर्तन के असर से कृषि जल आपूर्ति और रोजगार सृजन प्रभावित हो रहे हैं। इंडिया हीट समिट 2025 में विशेषज्ञों ने ग्लेशियरों के पिघलने और शहरी बाढ़ पर चिंता व्यक्त की। सक्रिय रोकथाम और शहरी नियोजन के साथ मौसमी आंकड़ों को एकीकृत करने की आवश्यकता बताई।

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    इंडिया हीट समिट 2025 में विशेषज्ञों ने जलवायु परिवर्तन पर किया विचार विमर्श।

    राज्य ब्यूरो, जागरण, नई दिल्ली: पढ़ने या सुनने में हैरानी भले ही हो, लेकिन अगर गर्मी इसी तरह से बढ़ती रही तो अगले 25 साल में ग्लेशियरों से बर्फ खत्म हो जाएगी।

    बर्फ नहीं होगी तो पीने के पानी की कमी हो जाएगी और नदियों भी सूखती जाएंगी। शुष्क और अर्ध- शुष्क क्षेत्रों में अनियमित वर्षा पैटर्न देखने को मिल रहा है, जिससे कृषि चक्र उलट रहा है।

    बाढ़-प्रवण क्षेत्र अब सूखे का सामना कर रहे हैं। मिट्टी की नमी में कमी, जल असुरक्षा, कीटों की बढ़ती किस्में, फसल का मुरझाना, भोजन में पोषण में कमी, दूध उत्पादन में कमी और पशुपालन पर प्रभाव भी शामिल है।

    क्लाइमेट ट्रेंडस की ओर से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एवंं राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सहयोग से रखे गए इंडिया हीट समिट 2025 में विशेषज्ञों ने इस संदर्भ में कई पहलुओं पर विचार-विमर्श किया।

    ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की वजह से बाढ़ का खतरा बढ़ा

    पर्यावरणविद डाॅ. फारूक आजम ने कहा कि ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने एवं हिमनद झीलों के निर्माण से बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है।

    उत्तराखंड जैसे राज्यों में जंगल की आग और पानी की कमी पहाड़ी पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव डाल रही है। उन्होंने कहा कि बहुत से ग्लेशियर गायब होने लगे हैं।

    साल दर साल गर्मी बढ़ती जा रही है। ग्लेशियर गर्मी को स्वयं में समाहित करते हैं। लेकिन अगर ये खुद ही बंजर हो जाएंगे तो यह चिंताजनक है।

    लू का असर कृषि और नदियों पर भी पड़ रहा, पैटर्न भी बदला

    लू का असर कृषि और नदियों पर भी पड़ रहा है। हिमालय के ग्लेशियर आसपास के घनी आबादी को प्रभावित करते हैं।

    आईआईटी दिल्ली के फैकल्टी डीन डाॅ. कृष्णा अच्युताराव ने कहा कि मौसम का ही नहीं, ऋतुओं का भी पैटर्न बदल रहा है। पिछले तीन- चार साल में लू का पैटर्न भी बदला है।

    कभी कम रह जाती है तो कभी ज्यादा हो जाती है। मार्च और अप्रैल भी अब काफी गर्म होने लगे हैं। भविष्य उमस और गर्मी वाला ही है।

    हवा में पानी होल्ड करने की बढ़ी क्षमता से गर्मी बढ़ रही

    हवा में पानी होल्ड करने की क्षमता बढ़ गई है, इसीलिए गर्मी भी अब ज्यादा होने लगी है। यह उमस हमारे लिए परेशानी भी बढ़ा रही है।

    पर्यावरणविद सौम्या स्वामीनाथन ने कहा, शहरी बाढ़ कई कारणों से बढ़ रही है- आंशिक रूप से जलवायु परिवर्तन और आंशिक रूप से खराब योजना।

    हालांकि पिछले एक दशक में कुल वर्षा में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है, लेकिन अब यह कम घंटों में गिर रही है, जिससे शहरों के लिए इससे निपटना मुश्किल हो रहा है।

    वर्षा तीव्र हो गई है, ऐसे में शहरी डिजाइन में पुनर्विचार की जरूरत

    जलवायु परिवर्तन ने वर्षा को तीव्र कर दिया है। ऐसे में हमें शहरी डिजाइन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। हम दिल्ली, हिमालय और तटीय क्षेत्रों में एक ही तरीके से निर्माण नहीं कर सकते। इस दृष्टिकोण को बदलना होगा।

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    पर्यावरणविद डा चांदनी सिंह ने कहा, इसमें कोई शक नहीं कि जलवायु परिवर्तन से विश्व बदल रहा है। यह भी देखा जाना चाहिए कि इसका असर कहां और कितना पड़ रहा है। इससे बचाव के लिए भी गंभीरता से काम होना चाहिए।

    हीट एक्शन प्लान की भी एसओपी तैयार होनी चाहिए

    इंडियन इंस्टीटयूट आफ हयूमन सेटलमेंट में डीन डाॅ. जगदीश कृष्णास्वामी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी से पारिस्थिकी तंत्र भी प्रभावित है।

    पेड़ों पर भी इसका असर नज़र आ रहा है। प्रकाश संश्लेषण और फ़ोटो सिंथेसिस प्रक्रिया तक प्रभावित है। हमें वन क्षेत्र पर ध्यान देना चाहिए।

    सीईईडब्ल्यू के सीनियर प्रोग्राम लीड डाॅ. विश्वास चितले ने मजबूत प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के माध्यम से सक्रिय रोकथाम की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने मानसून मिशन के मौसम पूर्वानुमान माॅडल जैसे भारत के चल रहे प्रयासों को महत्वपूर्ण कदम बताया।

    आपात स्थिति को लेकर बुनियादी ढांचे की है कमी

    क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि गर्म होते महासागर अधिक नमी ले जा रहे हैं, जिससे अधिक तीव्र और अनियमित वर्षा हो रही है।

    उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शहर ऐसी घटनाओं के लिए तैयार नहीं हैं, जिनमें परिवहन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और आपातकालीन प्रतिक्रिया के लिए लचीले बुनियादी ढांचे की कमी है।

    भारत को संवेदनशील आबादी की रक्षा के लिए शहरी नियोजन के साथ मौसमी आंकड़ों को तत्काल एकीकृत करना चाहिए।

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