बीमारियां बढ़ा रहा प्लास्टिक का कचरा, इनमें मौजूद रोगाणुओं में बन रहा एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोध
माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है। प्लास्टिक के छोटे कणों पर रोगाणुओं की परत बन जाती है, जिससे वे एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। एंटीबायोटिक दवाओं का अनावश्यक उपयोग इस समस्या को और बढ़ा रहा है। अध्ययनों से पता चला है कि भारत में एंटीबायोटिक प्रतिरोध की दर बहुत अधिक है, जिससे भविष्य में इलाज मुश्किल और महंगा हो सकता है।

HighLights
- <p>माइक्रोप्लास्टिक: स्वास्थ्य के लिए खतरा</p>
- <p>एंटीबायोटिक प्रतिरोध: एक गंभीर चुनौती</p>
- <p>भारत में सुपरबग का बढ़ता खतरा</p>
नई दिल्ली, विवेक तिवारी । माइक्रोप्लास्टिक का प्रदूषण हमारे पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचा ही रहा है, हमारी सेहत के लिए भी बड़ी चुनौती बन गया है। हाल के एक अध्ययन में पाया गया कि छोटे-छोटे प्लास्टिक के कण संक्रामक बैक्टीरिया, फंगस या परजीवियों के जमा होने और अपनी कॉलोनी बनाने के लिए मुफीद जगह बन रहे हैं। माइक्रोप्लास्टिक पर इन रोगाणुओं की एक बायोफिल्म (परत) बन जाती है। यहां ये सुरक्षित तो रहते ही हैं इनमें आपस में जीन ट्रांसफर भी होते हैं। ऐसे में ये एंटीबॉयोटिक दवाओं के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। आज पूरी दुनिया में स्वास्थ्य विशेषज्ञ माइक्रोबैक्टीरिया रजिस्टेंस को बड़ी चुनौती मान रहे हैं। ऐसे में माइक्रोप्लास्टिक्स का प्रदूषण इस चुनौती को और बढ़ा रहा हैं।
मिट्टी हो या पानी माइक्रोप्लास्टिक का प्रदूषण धरती पर हर जगह पहुंच चुका है। ये एंटीमाइक्रोबियल रजिस्टेंस को बढ़ा कर इंसान और धरती दोनों की ही सेहत के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। जर्नल ऑफ हेजार्डस मटीरियल्स रिसर्च पेपर में छपे एक शोध में वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया कि समुद्र, मिट्टी और पेयजल तक में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक्स पर बैक्टीरिया की चिपचिपी परतें (बायोफिल्म) बन जाती हैं। इन परतों में बैक्टीरिया आसानी से दवाओं से नहीं मरते। यहां बैक्टीरिया आपस में एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम करने वाले जीन भी साझा करते हैं। इस तरह से माइक्रोप्लास्टिक्स ऐसे 'वाहक' बन जाते हैं जो खतरनाक, दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया को अलग-अलग जगहों तक फैला सकते हैं। इन बैक्टीरिया से संक्रमित व्यक्ति का इलाज काफी मुश्किल हो जाता है। सामान्य एंटीबायोटिक दवाएं इस तरह के मरीज के इलाज में काम नहीं करती हैं।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की एंटीमाक्रोबियल रजिस्टेंस स्टैंडिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉक्टर नरेंद्र सैनी कहते हैं, कई अध्ययनों में देखा गया है कि माइक्रोप्लास्टिक पर बनी बायोफिल्म संक्रामक बैक्टीरिया के लिए एक अनुकूल इकोसिस्टम तैयार कर देता है। यहां उनमें आपस में जीन भी ट्रांसफर होते हैं। ऐसे में अगर कोई एक बैक्टीरिया किस दवा के प्रति रजिस्टेंस डेवलप कर चुका होता है तो दूसरों में भी इस तरह का रजिस्टेंस आ जाता है। ऐसे में ये बैक्टीरिया या रोगाणु बीमारी फैलाने के लिए ज्यादा घातक बन जाते हैं। भारत में लोगों में एंटीबायोटिक्स के प्रति रजिस्टेंस बहुत ज्यादा है। हमें इस बात को समझना होगा कि बीमारियां दो तरह की होती हैं। एक जिनमें बैक्टीरियल संक्रमण होता है और दूसरी जिनमें बैक्टीरियल संक्रमण नहीं होता है। आजकल ज्यादातर लाइफस्टाइल वाली बीमारियां सामने आती हैं। इन बीमारियों के इलाज में किसी भी तरह के एंटीबायोटिक की जरूरत नहीं पड़ती है। यहां तक की ज्यादातर जुकाम, बुखार और खांसी के मामले भी वायरल इंफेक्शन के कारण होते हैं। इनके इलाज में एंटीबायोटिक काम नहीं करती है। ऐसे में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल तब ही किया जाना चाहिए जब डॉक्टर आपको इसके इस्तेमाल की सलाह दे। बिना जरूरत एंटीबायोटिक का इस्तेमाल इन दवाओं के प्रति रजिस्टेंस पैदा करता है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस के बढ़ते खतरे के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए देशभर में अभियान चला रही है। लोगों को बताया जा रहा है कि बहुत से छोटे मोटे संक्रमण से सिर्फ अच्छे से हाथों की सफाई करके भी बचा जा सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से हाल ही जारी की गई वैश्विक एंटीबायोटिक प्रतिरोध निगरानी रिपोर्ट 2025 के मुताबिक 2023 में दुनिया भर में लोगों में छह में से एक जीवाणु संक्रमण एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधी था। इस रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि सामान्य संक्रमण और नियमित तौर पर किए जाने वाले इलाज के लिए एंटीबायोटिक प्रतिरोध एक बड़ी चुनौती बन सकता है। 2018 और 2023 के बीच एंटीबायोटिक और बैक्टीरिया या रोगजनकों के बीच 40 फीसदी मामलों में पाया गया कि एंटीबायोटिक बेहद असरदार नहीं रहे। उनमें रजिस्टेंस विकसित हो गया था। वहीं ये भी देखा गया कि इस तरह के मामलों में 5 से 15 फीसदी की वृद्धि हर साल रहो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी रिपोर्ट के आधार पर कहा कि एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति बढ़ता प्रतिरोध वैश्विक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है।
भारत में एंटीबायोटिक प्रतिरोध एक बड़े स्वास्थ्य संकट के तौर पर उभरा है। लैंसेट ई-क्लिनिकल मेडिसिन जर्नल में हाल ही प्रकाशित एक अध्ययन ने कहा गया है कि 83 फीसदी भारतीय मरीजों में बहुत सी एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति रजिस्टेंस रखने वाले बैक्टीरिया या रोगाणु (एमडीआरओ) मौजूद हैं। एआईजी हॉस्पिटल्स के शोधकर्ताओं की ओर से किए गए इस अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में भारत में एक बड़ा सुपरबग विस्फोट देखा जा सकता है।
इस अध्ययन में चार देशों के 1,200 से ज्यादा मरीजों के डेटा का विश्लेषण किया गया। इसमें पाया गया कि सामान्य एंडोस्कोपिक प्रक्रिया (ईआरसीपी) से गुजरने वाले भारत के मरीजों में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति रजिस्टेंस रखने वाले बैक्टीरिया या रोगाणु अन्य देशों के मरीजों की तुलना में काफी ज्यादा हैं। भारत में 83 फीसदी मरीजों में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति रजिस्टेंस रखने वाले बैक्टीरिया या रोगाणु पाए गए। वहीं इटली में 31.5 फीसदी, अमेरिका में 20.1 फीसदी और नीदरलैंड में 10.8 फीसदी मरीजों में ये बैक्टीरिया पाए गए। भारतीय मरीजों में पाए गए प्रतिरोधी बैक्टीरिया में 70.2 फीसदी ऐसे बैक्टीरिया थे जिन पर सामान्य एंटीबायोटिक्स काम नहीं करेंगे, और 23.5 फीसदी कार्बापेनम प्रतिरोधी बैक्टीरिया थे, जो अंतिम विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले एंटीबायोटिक्स के प्रति भी प्रतिरोधी हैं। एआईजी हॉस्पिटल्स के अध्यक्ष और अध्ययन के सह-लेखक डॉ. डी. नागेश्वर रेड्डी ने अपने इस अध्ययन में कहा कि जब 80 फीसदी से ज्यादा मरीजों में जहां पहले से ही दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया मौजूद हैं, तो इसका मतलब है कि खतरा अब अस्पतालों तक ही सीमित नहीं है, यह हमारे समुदायों, हमारे पर्यावरण और हमारे दैनिक जीवन में भी है।"
नेचर में छपे एक शोध में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि, एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया का बढ़ता प्रचलन वैश्विक स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चुनौती है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान समय में हर साल दुनियाभर में लगभग सात लाख लोग रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) संक्रमण से मरते हैं। यह संख्या वर्ष 2050 तक सालाना 10 मिलियन तक पहुंचने का अनुमान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया भर में 104 देशों से 23 मिलियन से अधिक बैक्टीरिया के संक्रमण और उसके इलाज के आंकड़े जुटाए हैं। इसके आधार पर ये अध्ययन किया गया है। ये स्टडी साफ तौर पर दर्शाती है कि कई सामान्य बैक्टीरियल संक्रमण के इलाज में अब पहले जैसी एंटीबॉयोटिक दवाएं प्रभावी नहीं रह गई हैं।
एम्स भोपाल के एक अध्ययन के मुताबिक ई.कोलाई बैक्टीरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवा सिप्रोफ्लोक्सासिन की सफलता की दर मात्र 39 फीसदी रह गई है। इसका मतलब ये है कि हर दस में से छह रोगियों में इस एंटीबायोटिक दवा के इलाज से फायदा नहीं मिलता है। वहीं सांस और खून में इंफेक्शन के लिए जिम्मेदार क्लेबसिएला न्यूमोनिया के संक्रमण के इलाज में एंटीबायोटिक मेरोपेनम की प्रभावशीलता मात्र 52% रह गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले दिनों में बहुत सी एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने से बीमारियों का इलाज भी मुश्किल होगा। वहीं इन दवाओं के काम न करने से एक तरफ जहां महामारी का खतरा बढ़ेगा वहीं सामान्य बीमारियों का इलाज भी बेहद महंगा हो जाएगा।
भारत में बहुत से अस्पतालों में आईसीयू में लम्बे समय तक रहने वाले मरीजों में ऐसे बैक्टीरियल इंफेक्शन जिन्हें पहले आसानी से कंट्रोल कर लिया जाता था अब उन्हें नियंत्रित करने के लिए दवाओं की कमी पड़ रही है। माइक्रोबायोलॉजिस्ट एवं एएमआर मामलों की विशेषज्ञ डॉक्टर प्राप्ति गिलाडा कहती हैं कि, नियमित तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाली बहुत सी एंटीबायोटिक दवाओं का असर कम हो रहा है। बहुत से लोग पहले हुई बीमारी के आधार पर एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करने लगते हैं। या बहुत से मरीज ठीक महसूस करने पर दवाओं का पूरा कोर्स नहीं करते हैं। कई बार देखा गया है कि जुकाम, बुखार होने पर मेडिकल स्टोर पर जा कर सीधे एंटीबायोटिक दवाएं ले लेते हैं। ये बेहद गंभीर है। इन्हीं वजहों से देश में इन दवाओं के प्रति रजिस्टेंस तेजी से विकसित हो रहा है। किसी मरीज को अगर यूरिनरी ट्रैक्ट में इंफेक्शन है या कफ है तो बिना सैंपल की जांच कराए एंटीबायोटिक का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। एक व्यक्ति के जीवन में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल एक निश्चित मात्रा में ही हो सकता है। ऐसे में अगर इन दवाओं का बेवजह इस्तेमाल होगा तो कभी मुश्किल स्थिति में ये दवाएं काम नहीं करेंगी।
एम्स ट्रामा सेंटर के डॉक्टरों की शोध में यह बात सामने आई है कि यदि कल्चर जांच के आधार पर मरीजों को एंटीबायोटिक दवा दी जाए तो दवा की जरूरत कम होगी। इससे इलाज में एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने की समस्या भी कम होगी। एम्स के डॉक्टरों ने ट्रामा सेंटर के आईसीयू में भर्ती हुए 18 वर्ष से अधिक उम्र के 582 मरीजों पर अध्ययन किया है। इन मरीजों को आईसीयू में भर्ती करने के 24 घंटे के अंदर अनुभव के आधार पर दी गई एंटीबायोटिक, एंटी फंगल दवाओं और कल्चर जांच के इस्तेमाल पर तुलनात्मक अध्ययन किया। इस अध्ययन में पाया गया कि बगैर यह जाने की मरीज को किस चीज का संक्रमण था, सिर्फ अनुभव के आधार पर एंटीबायोटिक व एंटी फंगल दवा देने पर उसकी खपत अधिक हुई। कल्चर जांच से संक्रमण का पता चलने के बाद एंटीबायोटिक दवाएं बदलनी भी पड़ीं। दवा भी कम मरीजों को देने की जरूरत पड़ी। एम्स ट्रामा सेंटर के माइक्रो बायोलाजी विभाग की प्रोफेसर डा. पूर्वा माथुर ने कहा कि आईसीएमआर की शोध परियोजना के तहत यह अध्ययन किया था। इसका मकसद आईसीयू में एंटीबायोटिक की खपत का पैटर्न जानना था ताकि इनका इस्तेमाल कम करने की नीति बनाई जा सके।
दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन मे पूर्व अध्यक्ष और सीनियर यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर अनिल गोयल कहते हैं कि हाल ही में सामने आए एक अध्ययन में पाया गया है कि 80 फीसदी तक लोगों में एंटीबायोटिक्स के प्रति रजिस्टेंस देखा गया। इसकी मुख्य वजह देश में इन दवाओं का दुरुपयोग है। लोग किसी भी मेडिकल स्टोर से जा कर बिना डॉक्टर से पूछे एंटीबायोटिक्स खा लेते हैं। कुछ लोग दवाओं का ओवरडोज भी ले लेते हैं। कई बार मरीज कोर्स पूरा नहीं करते इससे भी रजिस्टेंस पैदा होता है। कुछ मामलों में देखा गया है कि कुछ डॉक्टर मरीज को जल्द ठीक करने के चक्कर में थर्ड जनरेशन की दवाएं लिख देते हैं। ऐसे में पहले और दूसरे जनरेशन की दवा उस मरीज पर फिर काम ही नहीं करेगी।
रजिस्टेंस के चलते आने वाले समय में हालात काफी खराब हो सकते हैं। डायबिटीज, दिल और अन्य बीमारियों के मरीजों में और बच्चों के लिए मुश्किल बढ़ सकती है। किसी भी संक्रमण की स्थिति में इन्हें आईसीयू तक जाना पड़ सकता है। दवाओं के प्रति रजिस्टेंस को ध्यान में रखते हुए लोगों में इम्यूनिटी बढ़ाने और साफ सफाई के प्रति जागरूकता फैलाने की जरूरत है। इससे संक्रमण के खतरे को कम किया जा सकता है।
आने वाले समय में गरीब और मध्यम आय वर्ग वाले लोगों के लिए इलाज कराना बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकता है। एंटीबायोटिक्स का सही इस्तेमाल न होने पर 'सुपरबग्स' यानी ऐसे बैक्टीरिया पैदा हो जाते हैं जिन पर आम दवाएं असर नहीं करतीं। इससे मरीजों को अस्पताल में ज्यादा दिन भर्ती रहना पड़ता है। इससे इलाज भी अधिक जटिल व महंगा हो जाता है। आम दवाओं से ठीक होने वाले मामलों की तुलना में ऐसे मामलों का इलाज लगभग दोगुना महंगा पड़ता है। थिंक टैंक सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट की ओर से किए गए एक अध्ययन के प्रमुख एंथनी मैकडॉनेल कहते हैं कि, अगर एंटीबायोटिक प्रतिरोध की मौजूदा रफ्तार जारी रही, तो 2050 तक यह स्वास्थ्य सेवा पर सालाना 159 अरब डॉलर का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। वहीं 2025 से 2050 के बीच एंटीबायोटिक प्रतिरोध की वजह से 3.85 करोड़ लोगों की जान जा सकती है यानी मृत्यु दर में 60 फीसदी तक की वृद्धि। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो ये समस्या वैश्विक स्वास्थ्य बजट का करीब 1.2% खा सकती है। साथ ही, यह भी चेताया गया है कि इससे निपटने के लिए बेहतर इलाज और नई दवाओं की खोज के प्रयास तेज करने होंगे। अध्ययन में यह अहम बात भी कही गई कि अगर एंटीबायोटिक प्रतिरोध से किसी की जान नहीं जाती, तो 2050 तक दुनियाभर की आबादी में 2.22 करोड़ लोग ज्यादा होंगे।
