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    'Robots की मदद से fact check' संभव लेकिन human supervision अनिवार्य, POLIS के चार्ली बेकेट ने कहा

    By Saurabh VermaEdited By:
    Updated: Sun, 21 Feb 2021 11:20 AM (IST)

    दुनियाभर में डीपफेक का इस्तेमाल अब आम बात भारत भी इसके असर से अब दूर नहीं। डीपफेक यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की मदद से किसी तस्वीर वीडियो में किसी शख्स को हटाकर उसकी जगह पर किसी और को ला देना।

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    यह दैनिक जागरण की प्रतीकात्मक फाइल फोटो है।

    नई दिल्ली। Pratyush Ranjan : जैसे-जैसे समय के साथ फैक्ट-चेकिंग के टूल आधुनिक हो रहे हैं, वैसे-वैसे झूठी खबरें, अफवाहें फैलाने वाली ताकतें भी नए रंग-रूप में सामने आ रही हैं। ऐसी ताकतों का नया पैंतरा है 'डीपफेक', यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) की मदद से किसी तस्वीर, वीडियो में किसी शख्स को हटाकर उसकी जगह पर किसी और को ला देना। 

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    दुनियाभर में डीपफेक का इस्तेमाल अब आम बात हो गई है। भारत भी अब इसके असर से दूर नहीं है। समय के साथ यह एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। डीपफेक से लड़ना भारतीय फैक्ट चेकर्स के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर यहां के न्यूजरूम में प्रयोग अभी भी जारी हैं। आने वाले वक्त में AI युक्त टूल डीपफेक तस्वीरों और वीडियो की पहचान करने के काम में न्यूजरूम के लिए अहम भूमिका निभाएंगे। 

    जागरण न्यू मीडिया के सीनियर एडिटर Pratyush Ranjan ने deepfakes से जुड़ी भविष्य की चिंताओं और न्यूजरूम में artificial intelligence की अहमियत को लेकर POLIS के फाउंडिंग डायरेक्टर और प्रोफेसर चार्ली बेकेट से बात की। आपको बता दें कि POLIS लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स डिपार्टमेंट ऑफ मीडिया एंड कम्युनिकेशंस में इंटरनेशनल जर्नलिज्म और सोसायटी को लेकर होने वाली रिसर्च और डिबेट के लिए बनाया गया थिंक टैंक है। 

    POLIS के जर्नलिज्म AI प्रोजेक्ट को लीड करने वाले प्रोफेसर बेकेट आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस और फ्यूचर ऑफ न्यूज के एक्सपर्ट हैं। उन्होंने न्यूजरूम में AI के इस्तेमाल को लेकर जर्नलिस्टों के लिए कई सारे पब्लिक लेक्चर और सेमिनार को संबोधित किया है। साथ ही, न्यूजरूम में AI के इस्तेमाल को लेकर रिसर्च के लिए फेलोशिप कार्यक्रम भी तैयार किए हैं। 

    Pratyush Ranjan के साथ ईमेल के जरिए हुई बातचीत में बेकेट ने एक सवाल का जवाब देते हुए बताया कि रोबोट्स द्वारा फैक्ट चेक संभव है, लेकिन इसके साथ मानवीय सुपरविजन हमेशा अनिवार्य रहेगा। बेकेट ने इस बातचीत में अलग-अलग प्रकार की फेक न्यूज से जूझने में फैक्ट चेकर्स के सामने आ रही चुनौतियों को भी रेखांकित किया। इसके अलावा उन्होंने मिसइन्फॉर्मेशन के प्रवाह को रोकने के लिए न्यूजरूम में AI लिट्रेसी और AI सक्षम टूल्स के महत्व पर भी चर्चा की। 

    यहां प्रोफेसर चार्ली बेकेट के साथ हुई बातचीत के संपादित अंश पेश हैं:

    प्रत्यूष रंजन: फेक न्यूज से लड़ना एक जटिल चुनौती है। क्या ऐसा सोचना सही नहीं होगा कि वर्तमान आर्टिशियल इंटेलिजेंस टेक्नोलॉजी फेक न्यूज के खिलाफ इस लड़ाई को पूरी तरह से ऑटोमेटेड बना देगी? 

    चार्ली बेकेट: हां, मिसइन्फॉर्मेशन का ऑटोमेशन हमेशा एक  आंशिक और अपूर्ण समाधान ही रहेगा क्योंकि मॉडरेशन के कठिन मामलों में हमेशा मानवीय निर्णय की आवश्यकता पड़ती है। कोई भी एल्गोरिद्म भाषा, नैतिकता, अपराध के विचार को केंद्र में रखकर लिए जाने वाले मानवीय निर्णयों, फैसलों को हुबहू नहीं उतार सकता। हालांकि यह निश्चित रूप से संभावित मिसइन्फॉर्मेशन को फिल्टर करने, इसका रफ्तार को कम करने और मानवीय मॉडरेशन की प्रक्रिया को और भी प्रभावी बनाने में मदद जरूर करता है।

    फेक न्यूज से लड़ सकने वाले AI सिस्टम के निर्माण से पहले हमें दावे की सत्यता की पुष्टि की आवश्यकताओं को समझना चाहिए।

    प्रत्यूष रंजन: सभी प्रकार के कम्युनिकेशन में फर्जी दावों को डिबंक करने के लिए फैक्ट चेकिंग की प्रक्रिया में AI इनसाइट्स के इस्तेमाल की सोच के स्टेप क्या हो सकते हैं?

    चार्ली बेकेट: सबसे पहले कदम में तो AI की सीमाओं को समझना होगा। जब भी आप कोई सिस्टम तैयार कर रहे हैं तो इसकी प्रक्रिया को लेकर स्पष्ट और पारदर्शी रहिए। लोगों को बताइए कि पोस्ट क्यों हटाई गई और वे कैसे अपील कर सकते हैं। आप जिस सिस्टम को ऑपरेट कर रहे हैं, उसकी सेवा शर्तों को स्पष्ट रूप से समझाइए। 

    प्रत्यूष रंजन: एक फैक्ट चेकिंग ऑर्गनाइजेशन के लिए कौन सा शुरुआती कदम बेहतर होगा- 

    A- एक एंड-टू-एंड AI पावर्ड फेक न्यूज डिटेक्टर तैयार करना, जो किसी खबर को गलत या सही बताए? 

    या 

    B- एक AI एल्गोरिद्म बनाना. जो सिग्नल्स के आधार पर संकेत दे कि कोई दावा संभावित रूप से फेक न्यूज है? 

    चार्ली बेकेट: 'फेक' शब्द का इस्तेमाल करना सही नहीं है। सामान्यता इसका निर्धारण इतना सहज नहीं होता। कभी-कभी ही कोई कंटेंट स्पष्ट रूप से गलत समझ में आ जाता है, लेकिन आमतौर पर ये मामला काफी बारीक है। मैं दूसरे फिल्टर्स के भी इस्तेमाल की वकालत करूंगा। क्या यह न्यूज पुख्ता स्रोत से आई है? ऐसे फिल्टर्स मिसइन्फॉर्मेशन या डिसइन्फॉर्मेशन के संदर्भ में ज्यादा मददगार होते हैं। 

    प्रत्यूष रंजन: फैक्ट चेकिंग की प्रक्रिया को पुष्ट बनाने के लिए मानवीय नियंत्रित प्रक्रिया (फैक्ट चेकर्स) में AI टूल्स को शामिल करने के विचार को आप कैसे देखते हैं? 

    चार्ली बेकेट: AI एक टूल के रूप में मौजूद है। यह अविश्वसनीय जानकारी को फिल्टर कर इसकी समीक्षा की प्रक्रिया को ऑटोमेटड बना सकता है। इसके मापदंड को तय करने की जिम्मेदारी फैक्ट-चेकर्स की है। कंटेंट को प्रोसेस करने की हकीकत में उनकी क्षमता कितनी है? यह बहुत कुछ आपके फैक्ट चेकिंग के उद्देश्य पर भी निर्भर करता है। क्या यह किसी तथ्यात्मक जानकारी की पुष्टि के लिए है या पाठक को एक संतुलित नैरेटिव पेश करने के लिए है? 

    प्रत्यूष रंजन: फैक्ट चेकिंग जर्नलिज्म का एक अहम हिस्सा है। यहां किसी आर्टिकल में निष्कर्ष पर पहुंचने में एडिटोरियल गाइडलाइंस और नैतिकता एक अहम भूमिका अदा करती हैं। आपको क्या लगता है कि किसी संभावित फर्जी दावे में सच का निर्धारण करते वक्त मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म पर आंख मूंद कर भरोसा करना एक कठिन कार्य है? 

    चार्ली बेकेट: हां, निश्चित तौर पर। AI या किसी भी अन्य टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल आंख मूंद कर नहीं किया जाना चाहिए। यही वजह है कि टेक्नोलॉजी कैसे काम करती है, इसे समझऩे के लिए आपके न्यूजरूम में टेक्नोलॉजी स्किल्स जरूरी हैं। 

    प्रत्यूष रंजन: क्या आपको लगता है कि फैक्ट चेकिंग के काम में सहायता के लिए AI युक्त टूल्स के इस्तेमाल या निर्माण को बहुतों द्वारा फैक्ट चेकर्स को टेक्नोलॉजी से रिप्लेस करने के रूप में देखा जाएगा? 

    चार्ली बेकेट: हां। सोशल नेटवर्क्स को लेकर काफी विरोध मौजूद है क्योंकि जब वे कंटेंट मॉडरेशन के लिए AI का इस्तेमाल करते हैं तो वे अनिवार्य रूप से गलतिया करेंगे और ह्यूमन मॉडरेटर्स के द्वारा उन गलतियों को ठीक करने में वक्त लग सकता है। लेकिन ओपन प्लेटफॉर्म्स पर कम समय में ही बड़ी मात्रा में कंटेंट तैयार हो जाता है। ऐसे में हमे यह मान लेना चाहिए कि मिसइन्फॉर्मेशन के प्रबंधन के लिए हम या तो उन नेटवर्क्स को बंद कर देते हैं या हम उन्हें यह स्वीकार करते हुए खुले रहने की अनुमति देते हैं कि हमेशा कुछ अविश्वसनीय कम्युनिकेटर्स मौजूद रहेंगे। हम देख सकते हैं कि जब हम ओपन नेटवर्क्स को बंद करते हैं, तो यह सर्वाधिकारवादी सरकारों के पक्ष में जाता है। क्या यह सही होगा? 

    प्रत्यूष रंजन: हमें हाल के दिनों में ऐसी कई हेडलाइंस दिखी हैं कि जैसे 'रोबोट शीर्षक लिख रहे हैं', 'मशीनें खबर लिख रही हैं'। क्या हम आने वाले दिनों में ऐसी भी हेडलाइंस देखेंगे कि यह फैक्ट चेक रोबोट्स द्वारा किया गया है? 

    चार्ली बेकेट: हां, क्यों नहीं? अगर आप टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो स्पष्ट और पारदर्शी होना बेहतर होगा। हालांकि इसे हमेशा सुनिश्चित करें कि यह प्रक्रिया मानवीय सुपरविजन के तहत हो। 

    प्रत्यूष रंजन: भारत में विश्वास न्यूज जागरण न्यू मीडिया की IFCN सर्टिफाइड फैक्ट चेकिंग वेबसाइट है। यह हिंदी, अंग्रेजी के अलावा 10 अन्य इंडिक भाषाओं में फैक्ट चेक करती है। हम हर महीने 12 भाषाओं में 200 से अधिक फैक्ट चेक स्टोरी करते हैं। फैक्ट चेक किए जाने वाले फर्जी दावों से जुड़े डाटा (टेक्स्ट, तस्वीर और वीडियो के रूप में) की मात्रा काफी ज्यादा है। ऐसे में हमारी फैक्ट चेकिंग टीम को AI सक्षम टीम बनाने को लेकर आपके क्या सुझाव हैं? हम इस यात्रा की शुरुआत कहां और कैसे कर सकते हैं?  

    चार्ली बेकेट: यह एक बड़ा सवाल है और इसका जवाब सिर्फ आपके पास है क्योंकि आपके लक्ष्य और ब्रांड का निर्धारण आपको ही करना है। आपने इको-सिस्टम की जो जटिलता बताई वह उल्लेखनीय है। मैं भारत में मेन स्ट्रीम मीडिया या सोशल मीडिया पर मौजूद पूरी इन्फॉर्मेशन पाइपलाइन को साफ करने की बजाय सब्जेक्ट स्पेशलाइजेशन के हिसाब से चयनात्मक रूप से काम करते हुए फर्जी दावे के स्रोत को चिन्हित करने का सुझाव दूंगा।

    प्रत्यूष रंजन जागरण न्यू मीडिया के साथ बतौर सीनियर एडिटर जुड़े हुए हैं। प्रत्यूष एक सर्टिफाइड फैक्ट चेकर हैं और GNI इंडिया ट्रेनिंग नेटवर्क के साथ भी जुड़े हुए हैं। प्रत्यूष ने दुनियाभर के शीर्ष न्यूज़रूम के टॉप लीडर्स के साथ JournalismAI के 6 महीने लंबे प्रतिष्ठित ग्लोबल प्रोजेक्ट में JNM का प्रतिनिधित्व किया है। इसमें जर्नलिज्म के भविष्य पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के असर को लेकर चर्चा हुई।

    यह भी पढ़ेें : 'JournalismAI' प्रोजेक्ट में Pratyush Ranjan ने किया Jagran New Media का प्रतिनिधित्व, पत्रकारिता में AI के इस्तेमाल पर हुई डिटेल्ड स्टडी

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