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    इन खास तरीकों से हो सकता है ईश्वर का साक्षात्कार, जानें रोचक बातें

    By Jagran NewsEdited By: Vaishnavi Dwivedi
    Updated: Mon, 08 Dec 2025 01:29 PM (IST)

    प्रसन्न चित्त ही परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। इसलिए प्रसन्न रहने के लिए अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। हमें अपने जीवन की घटनाओं को प्रभु इच्छा मानन ...और पढ़ें

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    खुश रहने के अनेक फायदे।

    मोरारी बापू (कथा वाचक)। प्रसन्न चित्त से ही परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है। अगर चित्त प्रसन्न नहीं है तो परमात्मा से साक्षात्कार भी संभव नहीं है। इस सूत्र के विपरीत, हम बात-बात पर दुखी होने को अपना स्वभाव बना लेते हैं। हमारी इच्छा के विपरीत घटित होने वाली किसी भी घटना को विपत्ति मान लेते हैं। मैं अक्सर कहता हूं, जो हमारी इच्छा के अनुकूल घटित हो, उसे हरिकृपा मान लो और जो हमारी इच्छा के विपरीत घटित हो, उसे हरि इच्छा मान लो। हम किसी भी विपरीत परिस्थिति को या किसी भी कठिनाई को विपत्ति समझ लेते हैं। कृपया विपरीत परिस्थिति से दुखी न हों। बात-बात पर दुखी होने का स्वभाव न बनाएं। प्रसन्न रहें। रामचरित मानस में कहा गया है-

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    कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।

    जब तव सुमिरन भजन न होई।।

    विपत्ति तो तब है जब व्यक्ति हरि भजन भूल जाए। भगवान बुद्ध ने कहा है कि दुनिया में दुख है, दुख के कारण हैं, दुख के उपाय भी है और उपायशक्य भी हैं यानी वे उपाय किए भी जा सकते हैं। इस कथन को सकारात्मक रूप में लेकर मैं कहता हूं कि सुख भी है, सुख के कारण भी हैं, सुख के उपाय भी हैं और उपायशक्य हैं। दुख जाएगा ही। दुख है तो सुख भी है। थोड़ी दृष्टि बदल जाए तो दुख सुख में परिवर्तित हो सकता है। सुंदरकांड की चौपाई है-

    "रामचंद्र गुन बरनै लागा।

    सुनतहि सीता कर दुख भागा।"

    जानकी दुखी थीं, लेकिन जैसे ही हनुमान जी ने रामकथा सुनाना शुरू किया तो सीता का दुख भाग गया। मानस उपाय बता रही है कि भगवत गुणगान से, श्रवण से दुख भागते हैं। संग से दुख भागते हैं- संत मिलन सम सुख नाहि...। सुख पाना है सो अच्छा संग करें। दुख को भगा कर प्रसन्न रहना है तो शुभ सुनने की आदत डालने का प्रयास करें। दुख के प्रति दृष्टि बदली जानी चाहिए। जीवन में सुख का निर्माण दुख ही करता है। दुख न होता तो भक्ति न होती, भक्त न होते, गुरु न होते, शिष्य न होते, गुरु पूर्णिमा जैसे पर्व न होते। वास्तव में सुख का आयोजन दुख से ही है। दुख व्यक्ति को जाग्रत रखता है। सुख उसे सुला देता है। सुलाने वाले से ज्यादा महत्व जगाने वाले का है। फिर दुख से घबराना कैसा?

    सुख के सब साधन और कारण होने पर भी सुख का अनुभव न होने के कई कारण हो सकते हैं मगर तीन बाधाएं प्रमुख हैं। ये हैं- क्रोध, काम और लोभ। रामचरितमानस में लक्ष्मण का इन तीनों से जब-जब सामना हुआ, भगवान राम ने कुछ संकेत कर हमें बताया है कि इनसे कैसे बचा जा सकता है। भगवान राम जगतगुरु हैं और लक्ष्मण उनके अनुज भी हैं, सेवक भी हैं, शिष्य भी हैं। धनुष तोड़े जाने के प्रसंग में परशुराम के क्रोधित होने से हम सब परिचित हैं। परशुराम क्रोध हैं। पूरी जनकपुरी जब लक्ष्मण के लिए कह रही थी कि यह बालक अनुचित कर रहा है, तब राम ने संकेत कर लक्ष्मण को नियंत्रित किया। इसका प्रभाव यह रहा कि कुछ देर बाद ही स्वयं परशुराम कहने लगे कि मैंने बहुत कुछ अनुचित बोल दिया। क्रोध से जब भी पाला पड़े व्यक्ति को वाम वाणी का त्याग कर देना चाहिए। उल्टी वाणी क्रोध को और ज्यादा भड़का देती है।

    मानस में शूर्पणखा के प्रसंग से हम सब परिचित हैं। शूर्पणखा काम है। वह भड़काने वाला राग रूप लेकर पंचवटी में आई तो राम ने लक्ष्मण को संकेत किया कि इसके नाक-कान काट लो। काम से मुक्त होना है तो उसके नाक कान काटने होंगे। गंध और आवाज के बाद ही काम में व्यक्ति दृष्टि और स्पर्श तक और फिर पतन तक पहुंचता है। कोई भी गंध हो, उसे प्रभु की गंध मानो। कान से श्रवण करो तो भगवत चर्चा, भगवत कथा का ही श्रवण करो। धीरे-धीरे काम पर विजय हो जाएगी।

    मानस में भगवान राम ने तीसरी बार लक्ष्मण को संकेत उस समय किया जब उनका सामना समुद्र से हुआ। समुद्र द्वारा रास्ता न दिए जाने से लक्ष्मण गुस्से में थे। समुद्र लोभ है। संसार में उसके जैसा लोभी दूसरा नहीं है। उसके पास न जाने कैसे-कैसे रत्नों का भंडार है मगर वो सब कुछ छुपाए हुए है। समुद्र ने रास्ता नहीं दिया तो लक्ष्मण को क्रोध आ गया। उन्होंने राम से कहा कि हम क्षत्रिय हैं। देव देव तो आलसी पुकारते हैं। उस समय राम ने संकेत किया कि धैर्य रखो। तुम जैसा कह रहे हो मैं वैसा भी करूंगा। जीवन में जब भी लोभ से सामना हो जाए तो व्यक्ति को धीरज रखना चाहिए। लोभ समुद्र है। उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। हां, उस पर सेतु बनाकर उसको पार अवश्य ही किया जा सकता है।

    जीवन में सुख की अनुभूति करनी है तो यथासंभव अहंकार से बचें। निंदा और ईर्ष्या से बचें। भगवान को पाने के लिए अहंकार का त्याग आवश्यक है। अहंकार के रहते प्रभु तक नहीं पहुंचा जा सकता। दूसरों की निंदा करने से सदैव बचना चाहिए। यह सरल नहीं है मगर अभ्यास से संभव है। सबसे पहले तो संकल्प लिया जाना चाहिए कि हम अपनी वाणी से किसी की निंदा नहीं करेंगे। भले ही मन में किसी के प्रति कोई भी बात आए मगर उसे वाणी नहीं बनने देंगे। यह अभ्यास हो जाने पर धीरे-धीरे मन में भी निंदा के विचार नहीं आएंगे।

    मानव देह एक मंदिर है जिसके अंदर किसी पुजारी ने नहीं बल्कि स्वयं भगवान ने अपनी प्राण प्रतिष्ठा की है। ऐसे में किसी की निंदा करने का कोई अर्थ नहीं है। गलत विचार जब क्रिया में बदल जाते हैं तो दुख का कारण भी बन जाते हैं। जाप और भजन करते रहने का लाभ यह है कि गलत विचार क्रिया में नहीं बदलते और व्यक्ति बुरे कर्मों से बच जाता है।

    प्रस्तुति: राज कौशिक

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