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    Basant Panchami 2025: क्यों विद्या और संगीत की देवी मां सरस्वती को कहा जाता है भारती?

    वसंत के जन्म के सुंदर रूपक के साथ विद्यापति वसंत के राजकीय वैभव का वर्णन करते हुए कहते हैं- ‘आएल रितुपति राज बसंत। ऋतुओं के राजा वसंत का आगमन हुआ। उसके आगमन पर केसर के पुष्पों ने स्वर्णदंड को धारण किया। वृक्षों के नए पत्ते राजा के लिए आसन बने। राजा वसंत के सिर पर चंपा के पुष्पों का छत्र सजाया गया है।

    By Jagran News Edited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 27 Jan 2025 07:52 AM (IST)
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    Basant Panchami 2025: पुस्तक संभाले देवी सरस्वती भारत की चेतना का सांस्कृतिक स्वरूप हैं।

    आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण (सिद्धपीठ श्रीहनुमत निवास, श्रीअयोध्या धाम)। वसंत की आहट है। उसकी पगचाप सुनाई पड़ने लगी है। रूप-रंग-रस और सौरभ से समृद्ध हुई धरती अपने हृदय का संचित राग उड़ेल देने को मानो उत्सुक है। हो भी क्यों न! वसंत सभी ऋतुओं का अधिपति जो है, यह ऋतुराज है। इसका आश्रय पाकर चराचर जगत में सर्वत्र माधुर्य और मनोहरता का प्रसार हो जाता है। वेदों के अनुसार वसंत इस सृष्टि-यज्ञ का घृत है-‘वसंतोऽस्यासीदाज्यं।’

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    यह ब्रह्मांड, जिसमें हमारा जीवन अधिष्ठित है, वसंत इसका घी है, ग्रीष्म ईंधन है और शरद हवि है। वसंत के घी होने में उसका वैशिष्ट्य निहित है। घी स्नेह है, यह रस का-राग का कारक है। महाकवि कालिदास इस वसंत को प्रिय कहते हैं- ‘सर्वं प्रिये चारुतरं वसंते।’ मैथिल-कोकिल विद्यापति भी वसंत का गुणगान करने से चूकते नहीं। वे वसंत के जन्म की कथा कहते हैं। उनके अनुसार श्रीपंचमी वसंत-प्रसवा तिथि है। नौ महीने और पांच दिन के बाद वह शिशु वसंत को प्रकट करने वाली है।

    वसंत के जन्म के सुंदर रूपक के साथ विद्यापति वसंत के राजकीय वैभव का वर्णन करते हुए कहते हैं- ‘आएल रितुपति राज बसंत। ऋतुओं के राजा वसंत का आगमन हुआ। उसके आगमन पर केसर के पुष्पों ने स्वर्णदंड को धारण किया। वृक्षों के नए पत्ते राजा के लिए आसन बने। राजा वसंत के सिर पर चंपा के पुष्पों का छत्र सजाया गया है।

    आम्र मंजरी ऋतुराज के सिर का मुकुट बनी हुई है और कोयल उसके सामने पंचम स्वर में गा रही है। पक्षियों का समूह वहां आकर आशीर्वाद के मंत्र पढ़ने लगा। कुंद लता ने राजा वसंत की पताका का रूप धारण कर लिया है। पलाश के पत्ते तथा लवंग लता ने एक होकर धनुष व उसकी डोरी का रूप धारण कर लिया है। राजा वसंत के इन अस्त्र-शस्त्रों को देखकर शत्रु शिशिर ऋतु की सेना भाग खड़ी हुई।’

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    इसी सुराज्य और सुशासन में प्रकट होती हैं देवी सरस्वती। सरस्वती जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी हैं। बुद्धि-विद्या और समस्त बोध-विज्ञान की जननी हैं। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में सरस्वती को शास्त्रों की जननी, शुद्ध शांतस्वरूपा एवं कविगण की इष्ट देवी कहा गया है।

    सस्मिता सुदती वामा सुंदरीणांच सुंदरी।

    श्रेष्ठा श्रुतीनां शास्त्राणां विदुषां जननी परा॥

    वागधिष्ठातृदेवी सा कवीनामिष्टदेवता।

    शुद्धसत्त्वस्वरूपा च शांतरूपा सरस्वती॥

    अपनी ज्ञान-परंपरा के कारण विश्व भर में समादृत भारत देश में सरस्वती ‘भारती’ कहलाती हैं। भारती, जो भारत को धारण करती हैं। ऋग्वेद के वाक्सूक्त को देखते हुए यह अद्भुत बात सामने आती है कि वाग्देवी कहती हैं कि मैं ही ‘राष्ट्री’ अर्थात् राष्ट्र को धारण करती हुई इसकी स्वामिनी हूं। मैं ही यज्ञ करने वालों की पहली आकांक्षा हूं। देवता मेरा ही सर्वत्र अनुसंधान करते हैं और मैं ही आत्मसाक्षात्कार पूर्वक समस्त समृद्धि को प्रदान करने वाली हूं।

    अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।

    तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयंतीम्॥

    रुचि और राग से समृद्ध ऋतुराज वसंत के प्राकट्य के समय ही देवी सरस्वती के प्राकट्य का प्रसंग हमें प्राप्त होता है। शास्त्रीय व्यवस्था के अनुसार, माघ शुक्लपक्ष में लक्ष्मी की प्रिय श्री देने वाली जो ‘श्रीपंचमी’ कहलाती है, उसी तिथि को पूर्वाह्न में देवी सरस्वती का उत्सव किया जाना चाहिए -

    माघे मासि सिते पक्षे पञ्चमी या श्रियः प्रिया।

    तस्याः पूर्व्वाह्ण एवेह कार्यः सारस्वतोत्सवः॥

    यहां यह समझना रोचक है कि सरस्वती का उत्सव तब हो, जब स्नेह का, रस का, रुचि-राग का जागरण हो जाए। जो सृजनशील है, स्निग्ध है, रसमय है, वही सरस्वती का साम्राज्य है। सृष्टि के आरंभ में परमात्मा के मुख से प्रकट हुई देवी सरस्वती अपने स्वरूप से ही अपना संदेश व्यक्त करती हैं।

    आविर्ब्बभूव तत्पश्चान्मुखतः परमात्मनः।

    एका देवी शुक्लवर्णा वीणापुस्तकधारिणी॥

    शुक्लवर्ण वाली, शुभ्र वस्त्र धारण किए हुए, हाथों में वीणा और पुस्तक संभाले देवी सरस्वती भारत की चेतना का सांस्कृतिक स्वरूप हैं। वसंत और सरस्वती पूजा के योग को समझते हुए गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी के निरूपण का विशेष संदर्भ उल्लेखनीय है। वह श्रीरामचरितमानस में एक सादृश्य विधान करते हुए कहते हैं कि “श्रद्धा मानव की अंत:प्रकृति का वसंत है। मन तथा इंद्रियों का निग्रह करते हुए नियमों का पालन, श्रद्धा रूपी वसंत के पुष्प हैं। ज्ञान इसका फल है तथा भगवद्भक्ति इस फल का परम मधुर रस है।” बाह्य प्रकृति में जो वसंत है, अंत:प्रकृति में वही श्रद्धा है। जैसे वसंत ऋतु में वृक्ष-वनस्पतियों का निहित रस फूल-फल बनकर व्यक्त हो जाता है, उसी प्रकार श्रद्धा का उदय होने पर चरित्रगत दिव्यता आचरण बनकर प्रकट हो जाती है।

    वसंत और सरस्वती का यह युगपत आराधन केवल भौतिक नहीं है। यह सनातन धर्म में पीढ़ियों से प्रवाहित ज्ञान-परंपरा का दिव्य अनुष्ठान है। यजुर्वेद में “सरस्वती तु पंचधा” कहते हुए पांच ज्ञानेंद्रियों और पंचकोशों में सरस्वती के प्रवाह को पहचाना गया है। महाभारत में सरस्वती नदी की सात धाराओं सुप्रभा, कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, ओघवती, सुरेणु और विमलोदका नाम से निर्मित सारस्वत तीर्थों का वर्णन किया गया है। सरयू के उत्तर तट पर त्रेता में श्रीराम के प्राकट्य हेतु चक्रवर्ती दशरथ जी का अश्वमेध यज्ञ मनोरमा नाम की सरस्वती के तट पर ही संपन्न हुआ था।

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    वाणी, जो मनुष्य को ज्ञान-संपदा का अधिकार देती है; वाणी, जो मनुष्य को प्राणिजगत में उत्कृष्ट बनाती है, वह जीवन-यज्ञ में घी बनकर पाई जाती है। वसंत वही घी है, जिससे जीवन लहकता है और उसकी अभिव्यक्ति जागती है। वाग्देवी के कर कमलों में शोभित वीणा और पुस्तक केवल जड़ उपादान नहीं हैं, वे हमारी जातीय चेतना में निहित विद्या-बोध का शाश्वत संकेत हैं। वेद इसे राष्ट्रस्वामिनी कहते हैं, पुराण इसे भारत की प्राणधारा कहते हैं, संत मंगलकारिणी कहते हैं और कविगण इसे मां कहकर पुकारते हैं। महाप्राण निराला इसी भारती की जय-विजय मनाते हैं तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरणगुप्त इसी भद्रभावोद्भाविनी भारती के चतुर्दिक्-गुंजार की मंगलकामना करते हैं -

    मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती

    भगवान्! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।