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क्यों करते हैं हम मां दुर्गा की पूजा

नवरात्र का उत्सव प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है। दुर्गा पूजा के तीसरे दिन आदि-शक्ति दुर्गा के तृतीय स्वरूप मां चंद्रघंटा की पूजा होती है। देवी चन्द्रघण्टा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं। इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है। म

By Edited By: Published: Wed, 02 Apr 2014 11:21 AM (IST)Updated: Wed, 02 Apr 2014 11:21 AM (IST)
क्यों करते हैं हम मां दुर्गा की पूजा

नवरात्र का उत्सव प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है। दुर्गा पूजा के तीसरे दिन आदि-शक्ति दुर्गा के तृतीय स्वरूप मां चंद्रघंटा की पूजा होती है। देवी चन्द्रघण्टा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं। इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है तथा इस दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन किया जाता है। मां चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक एवं दिव्य सुगंधित वस्तुओं के दर्शन तथा अनुभव होते हैं, इस दिन साधक का मन मणिपूर चक्र में प्रविष्ट होता है यह क्षण साधक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

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चंद्रघंटा- नवरात्री की तीसरी दिन चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है। चेहरा शांत एवं सौम्य है और मुख पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही होती है। माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा जिसके कारण देवी का नाम चन्द्रघंटा हो गया है। अपने इस रूप से माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्न प्रदान करती हैं। मां चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, चक्त्र,धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद मंद मुस्कुरा रही होती हैं. माता का ऐसा अदभुत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध होते हैं और वेद मंत्रों द्वारा देवी चन्द्रघंटा की स्तुति करते हैं।

मां चन्द्रघंटा की कृपा से समस्त पाप और बाधाएं विनष्ट हो जाती हैं। समस्त भक्त जनों को देवी चंद्रघंटा की वंदना करते हुए कहना चाहिए या देवी सर्वभूतेषु चन्द्रघंटा रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: अर्थात देवी ने चन्द्रमा को अपने सिर पर घण्टे के सामान सजा रखा है उस महादेवी, महाशक्ति चन्द्रघंटा को मेरा प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है. इस प्रकार की स्तुति एवं प्रार्थना करने से देवी चन्द्रघंटा की प्रसन्नता प्राप्त होती है। देवी चंद्रघंटा पूजा विधि- देवी चन्द्रघंटा की भक्ति से आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त होती है। जो व्यक्ति मां चंद्रघंटा की श्रद्धा एवं भक्ति भाव सहित पूजा करता है उसे मां की कृपा प्राप्त होती है जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है। मां के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है जिससे वह जहां भी होते हैं वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है, इनके घंटे की ध्वनि सदैव भक्तों की प्रेत-बाधा आदि से रक्षा करती है तथा उस स्थान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है।

देवी का रूप प्रकृति की तरह रहस्यपूर्ण है। यह जीवन में ऐश्वर्य एवं प्रसन्नता देने वाला है। मां भगवती ऐसा वट वृक्ष हैं, जिसे जीवन की हर वेला, अपने हर रूप में फैलती है। देवी को प्रकृति रूप में भी माना जाता है। अगर धरती मां के रूप में वे भूमि है तो वे हिमालय पुत्री गंगा भी हैं। अपने इन रूपों में वे धरती पर आकर मानव मात्र को दुखों से मुक्त करती हैं। वे मनुष्य को पाप-दोष से निजात दिलाकर ज्ञान देती हैं।

ममतामयी मां दुर्गा अपने भक्तों की प्रर्थना, अपने बच्चों की पुकार अति शीघ्र सुनती हैं। वे इस सृष्टि की पालनहार हैं। वे ही संहारिणी हैं। वे सर्वस्व प्रदान करने वाली हैं। भक्त मां से इस प्रार्थना करते हैं-मुख में चंद्रमा की शोभा धारण करने वाली मां। मुझे मोक्ष की इच्छा नहीं है, संसार के वैभव की भी अभिलाषा नहीं है, न विज्ञान की अपेक्षा है, न सुख की आकांक्षा, अत: आप से मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म, मृडानी, रुद्राणी, शिव-शिव, भवानी- इन नामों का जाप करते हुए बीते।

मातृ-शक्ति (देवी) अथवा विशुद्ध चेतना समस्त रूपाकारों में व्याप्त है। प्रत्येक नाम और प्रत्येक रूप में एक ही चेतना को पहचानना नवरात्र का उत्सव है।

नवरात्र का उत्सव प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह अवधि आत्म-संप्रेषण और मूल की ओर वापस जाने का समय है। कायाकल्प के इस समय में प्रकृति पुराने को झाड़-पोंछ कर अपना नवीनीकरण करती है। वेदांत कहता है कि पदार्थ अपने को बारंबार पुन: रचने के लिए अपने मूल स्वरूप में वापस चला जाता है। रचना चक्रीय होती है, रैखिक नहीं। नवीनीकरण की सतत प्रक्रिया में प्रत्येक वस्तु की पुन:निर्मिति होती है। लेकिन मानव चेतना सृष्टि के इस नित्यक्रम में पिछड़ी रह जाती है। नवरात्र का त्योहार हमारे लिए अपनी चेतना को उसके मूल पर वापस ले जाना संभव बनाता है। उपवास, प्रार्थना, मौन और ध्यान के द्वारा भक्त चेतना के मूल तक पहुंच जाता है। अस्तित्व के तीन स्तरों पर यह हमें राहत पहुंचाता है- भौतिक, सूक्ष्म तथा कारणात्मक।

नवरात्रि पर हम उपवास और ध्यान करते हैं। उपवास शरीर को विष-मुक्त करता है, मौन वाणी को शुद्ध करके मस्तिष्क को आराम पहुंचाता है और ध्यान आपको अपने अस्तित्व के भीतर की गहराई में ले जाता है। भीतर की यात्रा हमारे नकारात्मक कर्र्मो को निर्मूल करती है। नवरात्र पर्व आत्मा या प्राणों का एक उत्सव है, जो जड़ता रूपी भस्मासुर, दुराग्रह रूपी रक्तबीज, विवेकहीन तर्क रूपी चंड-मुंड और धूमिल दृष्टि रूपी धूम्रालोचन को जीवनी शक्ति की ऊर्जा के स्तर को ऊपर

उठाकर काबू करता है।

नवरात्र के नौ दिन ब्रह्मांड की आदि त्रिगुणात्मकता के उत्सव का भी एक अवसर है। हमारा जीवन तीन गुणों से संचालित होता है, लेकिन हम उनको शायद ही कभी पहचानते हैं। नवरात्र के पहले तीन दिन 'तमो गुण' के हैं, अगले तीन दिन 'रजो गुण' के हैं तथा अंतिम तीन दिन 'सतोगुण' के हैं। हमारी चेतना तमो गुण और रजो गुण से पार आकर अंतिम तीन दिनों में सतोगुण में पुष्पित होती है। जब भी सतोगुण जीवन को शासित करता है, विजय अनुगमन करती है। ये तीन आदि-गुण ब्रह्मांड की स्त्री-शक्ति माने जाते हैं।

नवरात्र के दौरान मातृ-शक्ति की पूजा से हम तीनों गुणों में सामंजस्य करके वातावरण में सत्व का उत्कर्ष करते हैं। इसीलिए असत पर सत की विजय के रूप में नवरात्र का उत्सव मनाया जाता है। वैदांतिक दृष्टिकोण से यह प्रत्यक्ष अनेकता पर संपूर्ण एकात्मकता की विजय है।

ज्ञानी व्यक्ति के लिए समस्त सृष्टि जीवन है। जिस तरह बच्चे हर वस्तु में जीवन देखते हैं, उसी तरह ज्ञानी भी हर वस्तु में जीवन को पहचानता है। मातृ-शक्ति (देवी) अथवा विशुद्ध चेतना समस्त रूपाकारों में व्याप्त है और सारे नाम उसी के हैं। प्रत्येक नाम और प्रत्येक रूप में एक ही दैविकता को पहचानना ही नवरात्र का उत्सव है। इसलिए अंतिम तीन दिनों में जीवन और प्रकृति के सारे आयामों को सम्मानित करने वाली विशेष पूजाएं संपन्न की जातीं हैं।

काली प्रकृति की सर्वाधिक भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, लेकिन इसका एक रूप भयंकर भी है। अद्वैत की स्वीकृति मन में समग्र संपूर्ण की स्वीकृति बनकर मन को शांत कर देती है। मातृ-शक्ति की पहचान केवल प्रकाशमयी बुद्धि नहीं, बल्कि भ्रांति भी है, वह केवल समृद्धि (लक्ष्मी) नहीं, बल्कि भूख और प्यास भी है- क्षुधा और तृष्णा।


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