आखिर क्यों भरत जी ने प्रभु राम के पादुका को चुना? एक क्लिक में पढ़ें इससे जुड़ी कथा
अखंड प्रेम तो भक्त का ही होता है। पिता-पुत्र का प्रेम एक सीमा पर जाकर भौतिक हो सकता है पर भक्त और भगवान का प्रेम अलौकिक होता है। लौकिक में साधक याचना करता है अलौकिक में भगवान अनुग्रह करते हैं। लौकिक में संसार है अलौकिक में भुवनपति भगवान हैं। श्री भरत का विवेक अलौकिक है। श्रीहनुमान जी का विवेक अलौकिक है।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। भक्त और भगवान का प्रेम अलौकिक होता है। लौकिक में साधक याचना करता है, अलौकिक में भगवान अनुग्रह करते हैं। लौकिक में संसार है, अलौकिक में भुवनपति भगवान हैं। बुद्धि और हृदय में जो अंतर है, वही लौकिक और अलौकिक विवेक में है...
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम पर शोध करके कृपा को प्रकट किया। शोध की इच्छा बुद्धि विषयक है, शोध का विषय भगवान हों तो यह विवेक विषयक है। भगवान के कृपागुण को प्रकट करके सारे समाज को बांट देना ही अलौकिक विवेक है। ग्रंथ अलौकिक, प्रतिपाद्य अलौकिक, प्रतिपादक भी अलौकिक। यह शोधत्रयी है, जिसमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों एकाकार हो जाते हैं।
मुक्ति, भक्ति, साधना, शक्ति, प्राप्ति ये सब स्त्रीलिंग शब्द हैं, पर मुक्ति में ही मुक्त, भक्ति में ही भक्त, साधना में ही साधक, शक्ति में भी शक्तिमान तथा प्राप्ति से ही प्राप्तव्य पुल्लिंग शब्द बनते या संयुक्त हैं। यहां पर भगवान के सगुण रूप की प्राप्ति के लिए साधक मनु और साधिका शतरूपा जी उपस्थित हैं। दोनों का परम लक्ष्य एक होते हुए भी स्वभावकृत प्रकृति का अंतर प्रत्यक्ष परिलक्षित होता दिखाई देता है। ईश्वर की प्राप्ति और उसके परिणाम में अंतर का कारण भी वही बना। महाराज मनु और महारानी शतरूपा दोनों के जीवन में कोई लौकिक अभाव नहीं है, पर अलौकिक को प्राप्त करने की आकांक्षा है। हजारों वर्ष की साधना का सुफल है कि भगवान प्रकट हो गए। पुरुषार्थ प्रधान पुरुष मनु तथा कृपाप्रधान स्त्री महारानी शतरूपा से भगवान प्रकट होकर यह पूछते हैं कि आप क्या चाहते हैं? महाराज मनु ने भगवान से कहा कि आपके समान पुत्र चाहता हूं। इसका तात्पर्य है कि जो इस वर्तमान जीवन में पुत्र प्राप्त हैं, उसकी तुलना में प्राप्तव्य पुत्र और श्रेष्ठ होने चाहिए! जो प्राप्त पुत्र थे, उनकी लौकिक अनुकूलता ही अलौकिक ईश्वर को प्राप्त करने में अनुकूल बाधा बनी हुई थी। इसको समझ लेना ही मनु शतरूपा के अलौकिक विवेक का प्रमाण है।
रानी शतरूपा ने कही ये बात
भगवान ने मनु से कह दिया कि यदि आप मेरे समान ही पुत्र चाहते हैं तो मैं स्वयं ही तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारे राजमहल में जन्म लेकर अवतरित हो जाता हूं। फिर भगवान ने रानी शतरूपा से पूछा कि आप क्या चाहती हैं? महारानी शतरूपा ने पहले लौकिक विवेक का प्रयोग करते हुए महाराज मनु ने जो मांगा, उसकी प्रशंसा की, तत्पश्चात अपने अलौकिक विवेक से अलौकिक को लौकिक रूप में मांगकर वरदानों की झड़ी लगा दी। मां होकर भी भगवान से भक्ति का वरदान मांगते हुए वे कहती हैं कि प्रभु! आपके अपने भक्त जन्म लेकर अलौकिक और अखंड सुख पाते हैं। जैसा सुख, जैसी गति, जैसी भक्ति, जैसा स्नेह आपके श्रीचरणों में आपके भक्तों का होता है, वह दीजिए।
साथ ही वही विवेक भी दीजिए, जिसके कारण भक्तों की रति, मति, गति स्थिर बनी रहती है। चूंकि मुझे महाराजा दशरथ की पत्नी बनकर रहना है तो मुझे वह ज्ञान भी दीजिए, जिससे राजमहल में रहकर भी हमारी वृत्ति भक्तों और भक्ति की महिमा को मंडित करे, भोग विलासी स्वभाव में लिप्त होकर सामाजिक मर्यादा से विरत न हो जाए।
माता शतरूपा की विनम्र और गूढ़ वाणी में जो वरदान मांगे गए, उसे सुनकर कृपासिंधु भगवान अत्यंत भावपूर्ण होकर बोले, जो आपने अपनी सुरुचि के अनुरूप वरदान मांगे हैं, वे सब मैं आपको देता हूं। साथ ही वचन भी देता हूं कि मेरी कृपा तथा अनुग्रह से आपके जीवन में अलौकिक विवेक का कभी अभाव नहीं होगा। पुन: मनु जी फिर बोले कि प्रभु मैं यह भी मांगना चाहता हूं कि मेरा प्रेम आपके चरणों में वैसा ही हो, जैसा एक पिता का अपने पुत्र के प्रति होता है। भगवान ने उन्हें भी एवमस्तु कहकर संतुष्ट कर दिया, पर यहीं पर लौकिक और अलौकिक विवेक का अंतर सामने आ गया। कौशल्या जी भगवान के प्रति भक्त जैसा प्रेम मांग रही हैं तथा दशरथ जी पिता-पुत्र जैसा प्रेम मांग रहे हैं।
भक्त और भगवान का प्रेम होता है अलौकिक
अखंड प्रेम तो भक्त का ही होता है। पिता-पुत्र का प्रेम एक सीमा पर जाकर भौतिक हो सकता है, पर भक्त और भगवान का प्रेम अलौकिक होता है। लौकिक में साधक याचना करता है, अलौकिक में भगवान अनुग्रह करते हैं। लौकिक में संसार है, अलौकिक में भुवनपति भगवान हैं। श्री भरत का विवेक अलौकिक है। श्रीहनुमान जी का विवेक अलौकिक है। सुमित्रा, लक्ष्मण तथा शंकर जी का विवेक अलौकिक है। किसी ने सेवा अलौकिक की। किसी ने त्याग अलौकिक किया। सुमित्रा जी ने अपने पुत्र लक्ष्मण को अलौकिक उपदेश दिया। हनुमान जी को सीता जी ने अलौकिक आशीर्वाद दिया।
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हृदय और बुद्धि में जो अंतर है, वही अंतर लौकिक और अलौकिक विवेक में है। तीर्थराज प्रयाग की महिमा अकथ और अलौकिक है, जो तत्काल फल देने वाली है।
अकथ अलौकिक तीरथ राऊ।
देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ।।
गोस्वामी तुलसीदास जी रामकथा को भी अलौकिक बताते हुए कहते हैं, यह कथा ज्ञानियों के लिए अलौकिक है।
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी।
नहिं आचरजु करहिं अस जानी।।
भगवान की अलौकिक करनी को गिनाते हुए कहते हैं- जो बिना पैर के चलता है, बिना कान के सुनता है, बिना हाथ के सब कार्य करता है, बिना पेट के सारे रसों का भोग करता है, बिना जीभ के कुशल वक्ता होकर सब कुछ बोलता है, बिना नाक के सूंघता है।
अस सब भांति अलौकिक करनी।
महिमा जासु जाहि नहिं बरनी।।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो लौकिक रूप में चलता, बोलता, खाता, देखता, करता दिखाई दे रहा है, उसके पीछे अलौकिक रूप से सब करने वाला निराकार ही साकार दिखाई देता है। कार्य को देखकर हमें कारण में निष्ठ हो जाना चाहिए। कौशल्या जी का विवेक अलौकिक, सीता जी का सौंदर्य अलौकिक है। श्री सीता जी की भगवान के चरणों में प्रीति अलौकिक है।
गौतम तिय गति सुरति कर नहिं परसत पद पानि।
मन बिहंसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि।
शंकर जी भगवान के दूल्हा रूप का वर्णन ब्रह्मा जी से करते हुए कहते हैं भगवान की यह अलौकिक सुंदरता का वर्णन संभव नहीं है इसको तो केवल मन ही मन अनुभव ही किया जा सकता है।
सकल अलौकिक सुंदरताई।कहि न जाइ मनहीं मन भाई।।
श्रीभरत ने भगवान के समस्त अलौकिक रूप को धारण करके अपने संपूर्ण कृत्यों को भगवान श्रीराम के चरणों में अर्पित करके प्रेम के उस अलौकिक स्वरूप को प्रकट किया, जो उनके पिता श्रीदशरथ जी शरीर रहते नहीं प्राप्त कर सके। अंत में रावण वध के पश्चात जब वे अपने पुत्र राम को अब भी पुत्र ही मानकर स्वर्ग के राजा इंद्र के साथ बधाई देने पुन: पृथ्वी पर आए, तब भगवान ने लौकिक रूप में पहले उन्हें पिता रूप में प्रणाम किया और बाद में पिता दशरथ जी के नेत्रों में देखकर उन्हें दृढ़ ज्ञान दे दिया। यह ज्ञान देना ही उनकी अलौकिकता थी। श्रीभरत को ज्ञान नहीं देना पड़ा। अयोध्या पर आई विपत्ति को भरत के विशाल विवेक ने भगवान वाराह की तरह अयोध्या को विपत्ति से उबार लिया। कैकेयी की बुद्धि भले ही लौकिक सुखों को परम लक्ष्य मानकर दोषों में लिप्त हो गई थी, पर श्रीभरत का वह विवेक ही था, जिसने
भगवान की पादुका को चुना, राज्य को नहीं। यह मानस का सूक्ष्म तत्त्व है। इसीलिए भगवान की कथा को मूल ग्रंथों को पढ़कर धारण करना चाहिए। तभी हम लौकिक पंचमहाभूत शरीर के द्वारा भी अलौकिक विवेक के द्वारा उस अलौकिक सुख का अनुभव कर सकेंगे, जिसे माता कौशल्या ने भगवान को लौकिक पुत्र रूप में पाकर भी अपनी और भगवान की अलौकिकता को खंडित नहीं होने दिया।
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