Mahakumbh 2025: कब और कैसे हुई अमृत कलश की उत्पत्ति? महाकुंभ से है जुड़ा कनेक्शन
जब देवगुरु बृहस्पति वृषभ राशि में और ग्रहों के राजा मकर राशि में होते हैं तो महाकुंभ (Mahakumbh 2025) का आयोजन तीर्थ प्रयागराज में किया जाता है। जब दे ...और पढ़ें

आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। कुंभ का शब्दिक अर्थ घट या घड़ा है। आध्यात्मिक भाषा में घट का तात्पर्य है- हृदय। महा का तात्पर्य है- श्रीमन्ननारायण- श्रीहरि- श्रीगोविंदादि भगवन्नाम-गुण-धाम। सबके हृदय में भगवान का नित्य वास है। जीव और परमात्मा का मिलन ही महाकुंभ है। कुंभ भारतीय वैदिक-पौराणिक मान्यता का महापर्व है, जहां विभिन्न क्षेत्र-भाषा-संस्कृति के सांस्कृतिक मूल्यों और मानव समाज का अद्वितीय संगम होता है।
पौराणिक मान्यतानुसार सतयुग में देवताओं और दैत्यों ने परस्पर मिलकर अमृत की अभिलाषा से समुद्र-मंथन किया, जिसमें 14 रत्नों के प्राकट्य की शृंखला में सबसे अंत में धन्वंतरि जी अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। देव-दनुज सभी अमृत पान करने के लिए परस्पर द्वंद्व करने लगे। देवताओं के संकेत से देवराज इंद्र पुत्र जयंत अमृत-कलश को लेकर आकाशमार्ग से देवलोक की ओर लेकर चले, तब दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने दैत्यों से कहा जाओ ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा करो। घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा।
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इसी समय अमृत की कुछ बूंदें कलश से छलककर तीर्थराज प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं, तभी से इन स्थानों पर अर्धकुंभ, कुंभ और महाकुंभ के प्रचलन शुभारंभ हुआ। अमृत पान को लेकर देव-दैत्यों में 12 दिन तक अनवरत युद्ध चला, उसी समय भगवान् श्रीहरि परमसुंदरी का रूप धारणकर, हाथों में अमृतकलश लेकर प्रकट हुए, यह उनका मोहिनी अवतार कहलाया। भगवान के रूपलावण्य की माधुरी को देखकर, देव और दानव सभी विमोहित हो गए।
भगवान ने देव और दानवों को दो अलग-अलग पंक्तियों में बैठाकर, सर्वप्रथम देवताओं को अमृत पान कराने लगे, इसी मध्य राहु नाम का असुर छद्म रूप से देवभेष धारण करके, देवताओं के बीच जाकर बैठ गया, जिसे सूर्य-चंद्र ने संकेत से भगवान को बताया और भगवान ने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, किंतु अमृत पान कर लेने कारण उसकी मृत्यु नहीं हुई, बल्कि वह दो भागों में विभक्त हो गया- राहु और केतु।
अमृत पान हेतु देव-दानवों में परस्पर यह युद्ध 12 दिन तक गतिमान रहा। देवताओं के 12 दिन मनुष्यों के 12 वर्ष के तुल्य होते हैं। वस्तुतः कुंभ भी 12 होते हैं, जिनमें चार पृथ्वी पर और आठ देवलोक में होते हैं।
जिस समय देवराज इन्द्र पुत्र अमृत कलश को लेकर आकाशीय मार्ग से देवलोक जा रहे थे, उस समय चन्द्र-सूर्यादि उसकी रक्षा की थी, तत्समयानुसार ही वर्तमान राशियों पर चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में कुंभ का योग होता है।
इसके तीन स्वरूप हैं- 1- अर्ध कुंभ, 2- कुंभ/ पूर्णकुंभ और महाकुंभ।
अर्धकुंभ केवल हरिद्वार और प्रयाग में ही लगता है, जो कि क्रमशः 6 वर्षों के बाद लगता है। जब तीर्थराज प्रयाग में कुंभ लगता है, तब उसके 6 वर्ष बाद धर्मनगरी हरिद्वार में अर्धकुंभ लगता है। इसी प्रकार जब हरिद्वार में कुंभ लगता है, तब उसके 6 वर्ष के बाद प्रयाग में अर्ध कुंभ लगता है।
जब देवगुरु बृहस्पति वृषभ राशि में और ग्रहों के राजा मकर राशि में होते हैं तो महाकुंभ का आयोजन तीर्थ प्रयागराज में किया जाता है। जब देवगुरु बृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्यदेव मेष तक में होते हैं तब धर्मनगरी हरिद्वार में महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। जब सूर्यदेव मेष राशि में और देवगुरु बृहस्पति सिंह राशि होते हैं, तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है। जब देवगुरु और सूर्यदेव दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तो महाकुंभ का आयोजन पंचवटी के नासिक में होता है। जहां देश के कोने-कोने से संत-महपुरुष आकर, शिविर बनाकर, कल्पवास करते हैं और अपनी आध्यात्मिक गति-मति की अभिवृद्धि हेतु साधना करते हैं।
वर्तमान में तीर्थराज प्रयाग में पौष मास की पूर्णिमा 13 जनवरी, 2025 से माघ मास की पूर्णिमा 12 फरवरी 2025 तक महाकुंभ लगने जा रहा। ऐसा महाकुंभ जब 12 पूर्णकुंभ संपन्न हो जाते हैं, तब लगता है। 2025 का यह महाकुंभ 144 वर्षों बाद लग रहा है। कतिपय साधक और कल्पवासी लोग शिवरात्रि के बाद कुंभपरिक्षेत्र से अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करते हैं। यहां देश-विदेश से करोड़ों की संख्या भक्तगण आकर, संगम में स्नान करके, संत-महापुरुषों के सदुपदेश को सादर श्रवण कर, अपने जीवन को आध्यात्मिक और धार्मिक गतिविधियों से युक्तकर, अपने मानव जीवन को धन्य-धन्य करते हैं।

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